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________________ नवम अध्ययन, उद्देशक 3 871 मूलार्थ-श्रमण भगवान महावीर ने मन-वचन और काय रूप दंड एवं शरीर के ममत्व का परित्याग कर दिया था। ग्रामीण लोगों के वचनरूप कंटकों को कर्मों की निर्जरा का कारण समझकर भगवान ने उन्हें समभाव से सहन किया। हिन्दी-विवेचन यह नितान्त सत्य है कि कष्ट तभी तक कष्ट रूप से प्रतीत होता है, जब तक शरीर एवं अन्य भौतिक साधनों पर ममत्व रहता है। जब शरीर आदि से ममत्व हट जाता है, तब कष्ट दुःख रूप से प्रतीत नहीं होता है। ममत्व भाव के नष्ट होने से आत्मा में परीषहों को सहन करने की क्षमता आ जाती है। फिर उसके अन्दर किसी को दोष देने की वृत्ति नहीं रहती। इस तरह उसमें अहिंसा की भावना का विकास होता है। इससे साधक वैर-विरोध एवं प्रतिशोध की भावना से ऊपर उठ जाता है। वह कर्कश तथा कठोर शब्दों एवं डंडे आदि के प्रहारों को अपने कर्मों की निर्जरा का साधन-मानकर सहन करता है। ___भगवान महावीर एक महान साधक थे। उनके मन में किसी भी प्राणी के प्रति द्वेष नहीं था और न उनके मन में प्रतिशोध की भावना थी। परीषहों को सहने में वे सक्षम थे। संगम देव द्वारा निरन्तर 6 महीने तक दिए गए घोर परीषहों से भी वे विचलित नहीं हुए थे। वे कष्ट देने वाले व्यक्ति से भी घृणा नहीं करते थे। उसे अपने कर्मों की निर्जरा करने में सहयोगी मानते थे। क्योंकि कष्टों के सहन करने से कर्मों की निर्जरा होती थी। इस अपेक्षा से वह कष्ट दाता साधक की कर्म निर्जरा में सहायक हो जाता है। इस तरह भगवान अनार्य मनुष्यों द्वारा कहे गए कठोर शब्दों एवं प्रहारों को समभावपूर्वक सहन करते थे। __ भगवान की सहिष्णुता को स्पष्ट करने के लिए एक उदाहरण देते हुए सूत्रकार कहते हैंमूलम् - नागो संगाम सीसे वा, पारएं तत्थ से महावीरे। । एवंपि तत्थ लाढेहिं, अलद्ध पुव्वोवि एगया गामो॥8॥ छाया- नागो संग्राम शीर्षे वा पारगः तत्र स महावीरः। एवमपि तत्र लाढेषु अलब्ध पूर्वोपि एकदा ग्रामः॥
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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