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प्रथम अध्ययन, उद्देशक 1
हो जाता है कि जम्बू स्वामी अपने आराध्य देव आर्य सुधर्मा स्वामी से विनम्रतापूर्वक शास्त्र सुनने की भावना अभिव्यक्त करते हैं। वे इस बात को जानने के लिए अत्यधिक उत्सुक हैं कि श्रमण भगवान महावीर ने द्वादशांगी गणिपिटक-आगमों में किन भावों को व्यक्त किया है। आत्मा को कर्म-बन्धन से सर्वथा मुक्त करने के लिए साधना का क्या तरीका बताया है? यद्यपि, प्रस्तुत सूत्र में ऐसा स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता कि श्री जम्बू स्वामी ने आचारांग के भाव व्यक्त करने के लिए अपने गुरुदेव आर्य सुधर्मा स्वामी से प्रार्थना की हो। परन्तु अन्य आगमों की वर्णन-पद्धति से विचार करते हैं, तो फिर शंका को अवकाश नहीं रह जाता है, अर्थात् उक्त कथन सर्वथा सत्य सिद्ध हो जाता है। आचारांग सूत्र के “सुयं मे...” इस सूत्र से स्पष्ट ध्वनित होता है कि सुधर्मा स्वामी ने.जम्बू स्वामी के पूछने पर ही इस भाषा में आचारांग का वर्णन शुरू किया था। जो कुछ भी हो, तीर्थंकरों की अर्थ रूप वाणी को गणधर सूत्ररूप में गूंथते हैं और अपने शिष्यों की जिज्ञासा को देखकर उनके सामने अपना ज्ञान-पिटारा खोल कर रख देते हैं। आर्य सुधर्मा स्वामी ने भी भगवान महावीर से प्राप्त अर्थ रूप द्वादशांगी को अपने प्रमुख शिष्य जम्बू की जिज्ञासा को शान्त करने के लिए सूत्र रूप में सुनाना प्रारम्भ कर दिया। __ प्रस्तुत सूत्र का पहला सूत्र है-“सुयं मे आउसं! तेणं भगवया एवमक्खाय॥1॥" सुयं मे, अर्थात् मैंने सुना है। इस पद से यह स्पष्ट कर दिया है कि यह आगम मेरे मन की कल्पना या विचारों की उड़ान मात्र नहीं, बल्कि श्रमण भगवान महावीर से सुना हुआ है। इससे दो बातें स्पष्ट होती हैं-एक तो यह कि आगम सर्वज्ञ-प्रणीत होने से प्रामाणिक है। श्रमण संस्कृति के विचारकों ने भी आप्त पुरुष के कथन को आगम कहा है । आप्त पुरुष कौन है? इसका विवेचन करते हुए आगमों में कहा गया कि राग-द्वेष के विजेता तीर्थंकर-सर्वज्ञ भगवान, जिनेश्वर देव आप्त हैं। फलितार्थ यह हुआ कि जिनोपदिष्ट वाणी ही जैनागम है और वह सर्वज्ञों द्वारा उपदिष्ट होने के कारण प्रामाणिक है।
दूसरी बात यह है कि इस पद से गणधर देव की अपनी लघुता, विनम्रता एवं
1. तत्त्वार्थ भाष्य, 1/20 2. नन्दी सूत्र, 4