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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
वाली क्रिया संसार बढ़ाने वाली नहीं, अपितु घटाने वाली है।
इसी विषय को स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैंमूलम्- अइवत्तियं अणाउटिं, सयमन्नेसिं अकरणयाए।
जस्सित्थिओ परिन्नाया, सव्व कम्मावहाउ से अदक्खु॥17॥ छाया- अतियातिकाम् अनाकुट्टि-स्वयं अन्येषां अकरणतया।
यस्य स्त्रियः परिज्ञाताः, सर्वकर्मावहाः सएवमद्राक्षीत्॥ पदार्थ-अइवत्तियं-भगवान ने पाप से अतिक्रान्त होने से निर्दोष। अणाउटिंअहिंसा। सयं-स्वयं आचरण किया और। अन्नेसिं-दूसरों को। अकरणयाए-हिंसा. नहीं करने का उपदेश दिया। जस्सित्थिओ-जिन्हें स्त्रियों का स्वरूप एवं उनके साथ भोगे जाने वाले भोगों का विपाक। परिन्नाया-परिज्ञात है और। से-उस श्रमण भगवान महावीर ने। अदक्खु-देखा था कि। सव्व कम्मावहाउ-ये भोग सर्व पाप कर्म के आधारभूत हैं।
मूलार्थ-भगवान ने स्वयं निर्दोष अहिंसा का आचरण किया और अन्य व्यक्तियों को हिंसा नहीं करने का उपदेश दिया। भगवान स्त्रियों के यथार्थ स्वरूप एवं उनके साथ भोगे जाने वाले काम-भोगों के परिणाम से परिज्ञात थे। ये काम-भोग समस्त पाप कर्मों के कारण भूत हैं, ऐसा जानकर भगवान ने स्त्री-संसर्ग का परित्याग कर दिया। हिन्दी-विवेचन ___ साधना का मूल अहिंसा है। हिंसक व्यक्ति साधना में प्रवृत्त नहीं हो सकता है। क्योंकि उसके मन में प्राणियों के प्रति दया भाव नहीं रहता है। अतः भगवान महावीर ने स्वयं अहिंसा व्रत का पालन किया। उन्होंने अपने साधना काल में न किसी प्राणी की हिंसा की और न किसी व्यक्ति को हिंसा करने की प्रेरणा ही दी। उनके हृदय में प्रत्येक प्राणी के प्रति दया एवं करुणा का स्रोत बहता था। उन्होंने अपने समय में होने वाली याज्ञिक हिंसा जैसे क्रूर कर्मों को समाप्त करके जीवों को अभयदान दिया।
साधक के लिए हिंसा की तरह मैथुन भी त्याज्य है। इससे मोह की अभिवृद्धि होती है और मोह से पाप कर्म का बन्ध होता है। इसलिए भगवान ने मैथुन के साधन स्त्री-संसर्ग का सर्वथा त्याग कर दिया। साधु के लिए स्त्री का एवं साध्वी के लिए .