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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
पूर्वक उस वेदना को सह लेता है । वह उसे कटु नहीं, अपितु अमृत तुल्य मानता है। जैसे अमृत जीवन में अभिवृद्धि करता है, उसी तरह वेदना को समभाव पूर्वक सहन करने से आत्मा के ऊपर से कर्ममल दूर होकर आत्मज्योति का विकास होता है, आत्मा के गुणों में अभिवृद्धि होती है और आत्मा समस्त कर्मबन्धनों से मुक्त होकर सढ़ा के लिए अजर-अमर हो जाती है। अतः साधक को पूर्णतः निर्भीक बनकर आत्मसाधना में संलग्न रहना चाहिए ।
इस बात को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं
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मूलम् - गन्थेहिं विवित्तेहिं आउकालस्स पारए । पग्गहियत्तरगं चेयं, दवियस्स वियाणओ ॥11॥
छाया- - ग्रंथैः विविक्तैः, आयुः कालस्य पारगः । प्रगृहीततरकं चेदं द्रविकस्य विजानतः ॥
पदार्थ - गन्थेहिं - बाह्याभ्यन्तर परिग्रह रूप गांठ का । विवित्तेहिं - त्याग करके अथवा। गंथेहि-आचारांग आदि । विवित्तेहिं - विविध शास्त्रों के द्वारा आत्म-चिन्तन में संलग्न रहा हुआ मुनि। आउ कालस्स - आयुष्य काल का । पारए - पारगामी हो अर्थात् आयु पर्यन्त समाधि रखे। अब सूत्रकार इंगित मरण के विषय में कहते हैं। च - पुनः । इयं - यह इंगित मरण । पग्गहियत्तरगं - आत्म-परिज्ञा से विशिष्टतर है अतः। वियाणओ-गीतार्थ मुनि को ही इस मृत्यु की प्राप्ति हो सकती है, अन्य को नहीं ।
मूलार्थ - बाह्य और आभ्यन्तर ग्रन्थ- परिग्रह का त्याग करने से मुनि आयुपर्यन्त समाधि धारण करे या आचाराङ्गादि विविध शास्त्रों के द्वारा आत्म-चिन्तन में संलग्न रहता हुआ समय का ज्ञाता बने, अर्थात् जीवनपर्यन्त समाधि रखे । प्रस्तुत गाथा के अन्तिम दो पादों में सूत्रकार ने इंगितमरण का वर्णन किया है। यह इंगितमरण भक्त परिज्ञा से विशिष्टतर है । अतः उसकी प्राप्ति संयमशील गीतार्थ मुनि को ही हो सकती है, अन्य को नहीं ।
हिन्दी - विवेचन
प्रस्तुत गाथा में भक्त प्रत्याख्यान और इंगितमरण अनशन स्वीकार करने वालें