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अष्टम अध्ययन, उद्देशक 8
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सद्भाव में ही साधक समभावपूर्वक परीषहों को सह सकता है। वह मोह से रहित होकर ही शुद्ध संयम का पालन कर सकता है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि संयम, ज्ञान एवं धर्म से युक्त मोहरहित साधक ही पंडितमरण को प्राप्त करता है। मृत्यु को सफल बनाने के लिए धैर्य, ज्ञान एवं अनासक्त होना आवश्यक है।
इस बात को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैंमूलम्- दुविहंपि विइत्ताणं बुद्धाधम्मस्स पारगा।
. अणुपुब्बीइ संखाए, आरंभाओ (य) तिउट्टइ॥2॥ छाया- द्विविधमपिविदित्वा बुद्धाः धर्मस्य पारगाः।
आनुपूर्व्या संख्याय आरम्भात् च त्रुट्यति॥ पदार्थ-णं-वाक्यालंकार में है। दुविहंपि-दो प्रकार के बाह्म और आभ्यान्तर रूप को। विइत्ता-जानकर या ग्रहण करके। बुद्धा-तत्त्व के परिज्ञाता। धम्मस्स-श्रुत .
और चारित्र रूप धर्म के। पारगा-पारगामी। अणुपुव्वीइ-अनुक्रम से दीक्षा का परिपालन करके और मृत्यु के अवसर को। संखाए-जानकर। आरम्भाओ-आरम्भ से। तिउट्टइ-अष्ट प्रकार के कर्म बन्धन से मुक्त हो जाते हैं।
मूलार्थ-श्रुत और चारित्र रूप धर्म का पारगामी तत्त्वज्ञ मुनि बाह्य और आभ्यन्तर तप को धारण करके अनुक्रम से संयम का आराधन करते हुए मृत्यु के समय को जानकर आठ कर्मों से मुक्त हो जाता है। हिन्दी-विवेचन
प्रस्तुत गाथा में बताया गया है कि धर्म के स्वरूप का परिज्ञाता, तत्त्वज्ञ साधक ही मृत्यु के समय को जानकर कर्मबन्धन से मुक्त हो सकता है। कर्मबन्धन से मुक्त होने के लिए ज्ञान का होना जरूरी है। ज्ञानसम्पन्न साधक वस्तु के हेयोपादेय स्वरूप को भली-भांति जान सकता है और त्यागने योग्य दोषों से निवृत्त होकर साधना में संलग्न रहता है। वह मृत्यु से डरता नहीं, अपितु मृत्यु के समय को जानकर तप के द्वारा अष्ट कर्मों को क्षय करता हुआ समाधि मरण से निर्वाण पद को प्राप्त कर लेता है। इससे स्पष्ट होता है कि ज्ञान पूर्वक की गई प्रत्येक क्रिया साधक को साध्य के निकट पहुंचाती है।