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________________ 764 श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध तृणों को बिछाकर फिर। इत्थवि-यहां पर भी। समए-इस समय में। इत्तरियं कुज्जा-इत्वर करे (पादोगमन की अपेक्षा से नियत देश प्रचारादि के अभ्युमगम से सम्पन्न होने वाले इंगित मरण का नाम इत्वर है)। तं-वह इंगित मरण । सच्चं-सत्य है। सच्चवाई-वह सत्यवादी है। ओए-राग-द्वेष से रहित है। तिण्णे-संसार-सागर से पार हो गया है। छिन्नकहकहे-जिसने रागादि विकथा करनी छोड़ दी है। आईयर्से-जो जीवादि पदार्थों को जानने वाला है या जिसका कोई प्रयोजन शेष नहीं रहा। अणाईए-जो संसार से पार होने वाला। भेउरं कायं-जो विनाश होने वाली काया को। चिच्चाण-छोड़कर और। विरूवरूवे-नाना प्रकार के। परीसहोवसग्गे-परीषहोपसर्गों को। संविहूय-सहन करके। अस्सि-इस सर्वज्ञ प्रणीत आगम में। विस्संभणयाए-विश्वास होने से। भेरवमणुचिन्ने-भयानक अनुष्ठान-इंगित मरण को स्वीकार करता है। तत्थावि-रोगादि के उत्पन्न हो जाने पर उसने इस अनशन को स्वीकार किया है। तस्स-उस कालज्ञ भिक्षु का। काल परियाए-यह काल पर्याय। जाव-यावत्-शेष पाठ पूर्ववत समझें। अणुगामिय-पुण्योपार्जक होने से भवान्तर में साथ जाने वाला है। त्तिबेमि-इस प्रकार मैं कहता हूं। मूलार्थ-वह भिक्षु ग्राम, नगर, खेट, कर्बट, मण्डप, पत्तन, द्रोणमुख, आकर-खान, आश्रम, सन्निवेश, नैगम और राजधानी इन स्थानों में प्रवेश करे तथा उचित प्रासुकजीवादि से रहित एवं निर्दोष घास की याचना करके उस घास को एकान्त स्थान में ले जाए। जहां पर अण्डे, प्राणी-जीव-जन्तु, बीज, हरी, ओस, जल, चींटियां, निगोद, मिट्टी और मकड़ी के जाले आदि न हों, उस स्थान को अपनी आंखों से देखकर, रजोहरण से प्रमार्जन करके उस प्रासुक घास को बिछावे और उसे बिछाकर उचित . अवसर में इंगित मरण स्वीकार करे। यह मृत्यु सत्य है। मृत्यु को प्राप्त करने वाला साधक सत्यवादी है, राग-द्वेष को क्षय करने में प्रयत्नशील है। अतः वह संसार-सागर से तैरने वाला है। उसने विकथा आदि को छोड़ दिया है। वह जीवाजीवादि पदार्थों का ज्ञाता है और संसार से पारगामी है। वह सर्वज्ञप्रणीत आगम में विश्वास रखता है, इसलिए वह इस नाशवान शरीर को छोड़ कर, नाना प्रकार के परीषहोपसर्गों को सहन करके इस इंगितमरण, जो कि कायर पुरुषों द्वारा आदेय नहीं है-को स्वीकार . करता है। अतः रोगादि के होने पर भी उसका काल पर्याय पुण्योपार्जक होता है। अतः
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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