________________
श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
निस्सेसं-कल्याणकारी है। आणुगामियं भवान्तर में साथ जाने वाली है। तिमि - इस प्रकार मैं कहता हूं।
754
मूलार्थ - जिस साधु का यह आचार है कि यदि मैं रोगादि से पीड़ित हो जाऊं तो अन्य साधु को मैं यह नहीं कहूंगा कि तुम मेरी वैयावृत्य करो । परन्तु यदि रोगादि से रहित, समान धर्म वाला साधु अपने कर्मों की निर्जरा के लिए मेरी वैयावृत्य करेगा, तो मैं उसे स्वीकार करूंगा। जब मैं निरोग - रोगरहित अवस्था में होऊंगा तो मैं भी कर्मनिर्जरा के लिए समान धर्म वाले अन्य रोगी साधु की वैयावृत्य करूंगा। इस प्रकार मुनि अपने आचार का पालन करता हुआ अवसर आने पर भक्त परिज्ञा नाम की मृत्यु के द्वारा अपने प्राणों का त्याग कर दे, परन्तु अपने आचार को खण्डित न करे । कोई साधु यह प्रतिज्ञा करता है कि मैं साधुओं के. लिए आहारादि लाऊंगा और उनका लाया हुआ आहारादि ग्रहण भी करूंगा । कोई यह प्रतिज्ञा करता है कि मैं अन्य साधु को आहारादि लाकर दूंगा, परन्तु अन्य का लाया हुआ ग्रहण नहीं करूँगा । कोई साधु यह प्रतिज्ञा करता है कि मैं अन्य साधुओं को आहार लाकर नहीं दूंगा, किन्तु अन्य का लाया हुआ ग्रहण कर लूंगा । कोई साधु यह प्रतिज्ञा करता है कि मैं न तो अन्य साधु को लाकर दूंगा और न लाया हुआ खाऊंगा। इस प्रकार भगवान द्वारा प्ररूपित धर्म को सम्यक्तया जानता हुआ उसका यथार्थ रूप से परिपालन करे । अतः भगवान के कहे हुए धर्म का यथाविधि पालन करने वाले शान्त, विरत एवं अच्छी लेश्या से युक्त साधु भक्त परिज्ञा से आयु कर्म के क्षय करने का कारण होता है । यह भक्त परिज्ञा मोह को नष्ट करने का स्थान है, इसलिए यह मृत्यु हितकारी, सुखकारी, क्षेमकारी और कल्याणकारी होने से भवान्तर में साथ जाने वाली है । इस प्रकार मैं कहता हूं ।
हिन्दी - विवेचन
साधना का जीवन स्वावलम्बन का जीवन है । साधक कभी अपने समानधर्मी साधक का सहयोग लेता भी है, तो वह अदीनभाव से एवं उसकी स्वेच्छा पूर्वक लेता है। वह न तो किसी पर दबाव डालता है और न वह दीन स्वर से गिड़गिड़ाता ही है । इसी बात को स्पष्ट करते हुए सूत्रकार ने बताया है कि परिहार विशुद्ध चारित्र निष्ठ एवं अभिग्रह संपन्न मुनियों के ऐसी प्रतिज्ञा होती है कि मैं अस्वस्थ अवस्था में किसी