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'श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
को भी ग्रहण किया है। जैसे-1-पात्र, 2-पात्र बन्धन, 3-पात्र स्थापन, 4-पात्र केसरिक-प्रमार्जनिका, 5-पटल, 6-रजस्त्राण, 7-गोच्छक-पात्र साफ करने का वस्त्र, ये सात उपकरण हुए' । तीन वस्त्र, रजोहरण और मुखवस्त्रिका, इस प्रकार जिनकल्प की भूमिका पर स्थित एवं अभिग्रहनिष्ठ मुनि के 12 उपकरण होते हैं। ____साधु को मर्यादित उपधि रखने का उपदेश देने का कारण यह है कि उपधि संयम का साधन मात्र है। अतः साधु संयम की साधना के लिए आवश्यक उपधि के अतिरिक्त उपधि का संग्रह न करे, क्योंकि अनावश्यक उपधि के संग्रह से मन में ममत्व का भाव जगेगा और उसका समस्त समय जो अधिक-से-अधिक स्वाध्याय, ध्यान एवं चिन्तन-मनन में लगना चाहिए, वह उसमें न लगाकर अनावश्यक उपधि को संभालने में ही व्यतीत कर देगा। इस तरह स्वाध्याय एवं चिन्तन में विघ्न न पड़े तथा मन में संग्रह एवं ममत्व की भावना उबुद्ध न हो, इस अपेक्षा से साधु को मर्यादित उपकरण रखने का उपदेश दिया गया है।
प्रस्तुत सूत्र में वस्त्र धोने का जो निषेध किया गया है, वह भी विशिष्ट अभिग्रह संपन्न मुनि के लिए ही किया गया है, ऐसा प्रतीत होता है क्योंकि स्थविर कल्पी मुनि कुछ कारणों से वस्त्र धो भी सकते हैं। विभूषा के लिए वस्त्र धोने का निषेध किया गया है और उसके लिए प्रायश्चित्त भी बताया गया है, परन्तु भगवान महावीर के शासन के सब साधुओं के लिए भले ही वे जिनकल्पी हों या स्थविरकल्पी, रंगीन वस्त्र पहनने का निषेध है।
इस तरह अभिग्रहनिष्ठ मुनि मर्यादित वस्त्र-पात्र आदि का उपयोग करे, परन्तु ग्रीष्म ऋतु आने पर उसे क्या करना चाहिए, इस बात का उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम्-अह पुण एवं जाणिज्जा-उवाइक्कते खलु हेमंते, गिम्हे 1. पत्तं, पत्ता बंधो, पायट्ठवणं च पायकेसरिया। __पडलाइ रयत्ताणं च गोच्छओ पाय णिज्जोगो॥
-आचाराङ्ग वृत्ति 2. तदेवं सप्त प्रकारं पात्रं कल्पत्रयं रजोहरणं मुखवस्त्रिका चेत्येवं द्वादशधोपधिः।
-आचाराङ्ग वृत्ति 3. जे विभूसावडियाए वत्थं वा 4 धोवइ धोवंतं वा साइज्जइ। -निशीथ सूत्र, 15, 159