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________________ अष्टम अध्ययन, उद्देशक 3 . क्षणिक है, नाशवान है, फिर भी धर्म-साधना करने का सर्वश्रेष्ठ साधन है। मनुष्य के शरीर में ही साधक अपने चरम उद्देश्य को सफल बना सकता है। वह सदा के लिए कर्मबन्ध से छुटकारा पा सकता है। इसलिए साधक को सदा इससे लाभ उठाने का प्रयत्न करना चाहिए। कुछ कायर लोग परीषहों के उत्पन्न होने पर ग्लानि का अनुभव करते हैं। वे नाशवान शरीर पर ममत्व लाकर अपने पथ से भ्रष्ट हो जाते हैं। परन्तु वीर पुरुष किसी भी परिस्थिति में पथ-भ्रष्ट नहीं होते। वे परीषहों के उपस्थित होने पर किसी भी प्रकार की चिन्ता नहीं करते। इस विषय में सूत्रकार कहते हैं- . __ मूलम्-ओए दयं दयइ, जे संनिहाणसत्थस्स खेयन्ने से भिक्खू कालन्ने, बलन्ने, मायन्ने, खणन्ने, विणयन्ने, समयन्ने परिग्गहं अममायमाणे कालेणुलाइ अपडिन्ने दुहओ छित्ता नियाइं॥206॥ छाया-ओजः दयां दयते यः सन्निधानस्य खेदज्ञः स भिक्षुः कालज्ञः, बलज्ञः, मात्रज्ञः, क्षणज्ञः, विनयज्ञः, समयज्ञः परिग्रहमममत्वेन कालेनोत्थायी अप्रतिज्ञः उभयतः छेत्ता निर्वाति। __पदार्थ-ओए-रागादि से रहित अकेला भिक्षु क्षुधापरीषहादि के होने पर। दयं दयइ-दया का पालन करे। जे-जो। संनिहाणसत्थस्स-नरकादि के स्वरूप के निरूपक शास्त्र या कर्म रूप सन्निधान के शस्त्र-संयम का। खेयन्ने-परिज्ञाता है। से-वह। भिक्खू-भिक्षु। कालन्ने-काल के स्वरूप का परिज्ञाता। बलन्ने-बल का परिज्ञाता। मायन्ने-परिमाण को जानने वाला। समयन्ने-समय का ज्ञाता एवं। परिग्गह-परिग्रह के विषय में। अममायमाणे-ममत्व न करता हुआ। कालेणुट्ठाइ-समय पर कार्य करने वाला। अपडिन्ने-कषाय आदि की प्रतिज्ञा से रहित । दुहओ-दोनों प्रकार के राग-द्वेष अथवा द्रव्य और भाव से। छित्ता-मर्म का छेदन करने वाला। नियाई-निश्चित रूप से संयमानुष्ठान में संलग्न रहता है। - मूलार्थ-रागद्वेष से रहित भिक्षु क्षुधा आदि परीषहों के उत्पन्न होने पर भी दया का पालन करता है। वह भिक्षु जो नरक आदि के स्वरूप का वर्णन करने वाले शास्त्रों का परिज्ञाता है, काल का ज्ञाता है, अपने बल का ज्ञाता है, परिमाण आदि
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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