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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
तू मेरे लिए प्राणी, भूत, जीव और सत्त्व आदि का उपमर्दन करके आहारादि पदार्थ बनाएगा या मेरे उद्देश्य से मोल लेकर, उधार लेकर, किसी से छीनकर या अन्य व्यक्ति की वस्तु को उसकी बिना आज्ञा लेकर और घर से लाकर देगा। तू नया मकान-उपाश्रय बनवा कर या पुरातन मकान का जीर्णोद्धार करवाकर देगा, परन्तु हे आयुष्मन् गृहस्थ! मैं आप के इन पदार्थों को स्वीकार नहीं कर सकता हूं। क्योंकि, मैं विरत हूं, आरम्भ-समारम्भ का पूर्णतः त्याग कर चुका हूं, अतः मैं आपके उक्त प्रस्ताव का न आदर करता हूं और न उसे उचित ही समझता हूं। हिन्दी-विवेचन
यह हम देख चुके हैं कि साधु आरम्भ-समारम्भ से सर्वथा निवृत्त होता है। अतः वह न तो स्वयं भोजन बनाता है और न अपने लिए बनाया हुआ आहार-पानी, वस्त्र-पात्र, मकान आदि स्वीकार ही करता है। वह गृहस्थ के अपने एवं उसके परिवार के उपभोग के लिए बने हुए आहार-पानी आदि को अपनी मर्यादा के अनुरूप होने पर ही स्वीकार करता है, परन्तु यदि उसके निमित्त कोई गृहस्थ आरम्भ-समारम्भ करके कोई पदार्थ तैयार करे, तो साधु को वह पदार्थ ग्रहण करना नहीं कल्पता है।
इसी तरह मुनि श्मशान में, शून्य स्थान में, पर्वत की गुफा में या इस तरह किसी अन्य स्थान में बैठा हो, खड़ा हो या शयन कर रहा हो, उस समय यदि कोई श्रद्धानिष्ठ भक्त-गृहस्थ आकर मुनि से प्रार्थना करे कि मैं आपके लिए भोजन तैयार कर के तथा वस्त्र-पात्र आदि खरीद कर लाता हूं और रहने के लिए मकान भी बनवा देता हूं। उस समय मुनि उससे कहे कि हे देवानुप्रिय! मुनि को ऐसा भोजन एवं वस्त्र-पात्र आदि लेना नहीं कल्पता है। क्योंकि, मैंने आरम्भ-समारम्भ का त्रिकरण
और त्रियोग से त्याग कर दिया है। अतः मेरे लिए भोजन आदि बनाने, खरीदने आदि में अनेक तरह का आरम्भ होगा, अनेक जीवों का नाश होगा, इसलिए मैं ऐसी कोई वस्तु स्वीकार नहीं कर सकता हूं। ___ इस सूत्र से यह स्पष्ट होता है कि इस तरह की प्रार्थना जैन साधु के आचार से अपरिचित व्यक्ति ही कर सकता है। उस युग में बौद्ध आदि भिक्षु गृहस्थ का निमंत्रण स्वीकार करते थे। आज भी अन्य मत के बहुत-से साधु-सन्न्यासी गृहस्थों का निमन्त्रण