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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
अन्य मत के विचारकों की विचारधारा कैसी है, इसे बताते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम्-इहमेगेसिं आयारगोयरे नो सुनिसंते भवति ते इह आरम्भट्ठी अणुवयमाणा हण पाणे घायमाणा हणओ यावि समणुजाणमाणा अदुवा अदिन्नमाययंति अदुवा वायाउ विउज्जति, तंजहा अत्थि लोए, नत्थि लोए, धुवे लोए, अधुवे लोए, साइए लोए, अणाइए लोए, सपज्जवसिए लोए, अपज्जवसिए लोए, सुकडेत्ति वा, दुक्कडेत्ति वा, कल्लाणेत्ति वा, पावेत्ति वा, साहुत्ति वा, असाहुत्ति वा, सिद्धित्ति वा, असिद्धित्ति वा, निरएत्ति वा, अनिरएत्ति वा, जमिणं विप्पडिवन्ना मामगं धम्म पन्नवेमाणा इत्थवि जाणह अकस्मात् एवं तेसिं नो सुयक्खाए धम्मे, नो सुपन्नत्ते धम्मे भवइ॥196॥
छाया-इहैकेषामाचारगोचरो नो निशान्तो भवति ते इह आरंभार्थिनो भवन्ति, अनुवदन्तः जहि प्राणिनः घातयन्तो घ्नतश्चापि समनुजानन्तः अथवा अदत्तमाददति (गृह्णन्ति) अथवा वाचो वियुञ्जन्ति, तद्यथा-अस्ति लोकः, नास्ति लोकः, ध्रुवो लोकः, अधुवो लोकः सादिको लोकः, अनादिको लोकः, सपर्यवसितो लोकः, अपर्यवसितो लोकः, सुकृतमिति वा, दुष्कृतमिति वा कल्याणमिति वा, पापमिति वा, साधुरिति वा, असाधुरिति वा, सिद्धिरितिं वा, असिद्धिरिति वा, नरक इति वा, अनरक इति वा, यदिदं विप्रतिपन्नाः मामकं धर्मं प्रज्ञापयन्तः अत्रापि जानीत अकस्मादेव तेषां न स्वाख्यातो धर्मो नो सुप्रज्ञापितो धर्मो भवति।
पदार्थ-इह-इस मनुष्य लोक में। एगेसिं-किसी किसी को-जिनके पूर्वकृत अशुभ कर्म उदय में आ रहे हैं। आयारगोयरे-आचार विषयक-जो मोक्ष मार्ग की साधना के विषय में। नो सुनिसंते-भली-भांति से परिचित नहीं। भवति-होते हैं। ते-वे आचार-विचार से अपरिचित व्यक्ति। इह-इस लोक में। आरम्भट्ठी-आरम्भ करने वाले हो जाते हैं। अणुवयमाण-फिर वे उन शाक्यादि अन्य मत के भिक्षुओं की तरह बोलने लग जाते हैं कि। हणपाणे-तुम प्राणियों का अवहनन-नाश करो। घायमाणा-वे अन्य व्यक्तियों से घात कराते हुए। हणओ यावि-और हनन करने वाले प्राणियों का। समणुजाणमाणा-अनुमोदन-समर्थन करता है। अदुवा-अथवा।