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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
उपशमं, निर्वाणं, शौचं, आर्जवं, मार्दवं लाघवमनतिपत्य सर्वेषां प्राणिनां, सर्वेषां भूतानां, सर्वेषां सत्वानां, सर्वेषां जीवानां अनुविचिन्त्य भिक्षु धर्ममाचक्षीत।
पदार्थ-से-वह भिक्षु आहारादि के लिए। गिहेसु वा-घरों में अथवा। गिहतरेसु वा-गृहान्तरों में अथवा। गामेसु वा-ग्रामों में अथवा। गामंतरेसु वाग्रामान्तरों में अथवा। नगरेसु वा-नगरों में अथवा। नगरन्तरेसु वा-नगरान्तरों में अथवा। जणवयेसु वा-जनपदों में अथवा। जणवयंतरेसु वा-जनपदान्तरों में अथवा। गामनयरंतरेसु वा-ग्राम और अन्य नगरों में अथवा। गामजणवयन्तरेसु वा-ग्रामों या जनपदों में, अथवा। नगरजणवयंतरेसु वा-नगरों या जनपदों में। संतेगण जणा-बहुत-से जन विद्यमान हैं, जो। लूसगा भवंति-हिंसक होते हैं, अर्थात् उपद्रव करने वाले होते हैं। अदुवा-अथवा। फासा-तृणादि के स्पर्श से। फुसंति-स्पर्शित होते हैं। ते-उन। फासे-स्पर्शों को। पुठे-स्पृष्ट होने पर। वीरो-वीर पुरुष। अहियासए-सहन करे। ओए-रागादि से रहित अकेला। समियदंसणे-समित्तदर्शी-सम्यग् दृष्टि। दयं-दया को। जाणिता-जानकर। पाईणं-पूर्व दिशा को। पडीणं-पश्चिम दिशा को। दाहिणं-दक्षिण दिशा को। उदीणं-उत्तर दिशा को, विचार कर। लोगस्स-लोक के ऊपर दया करता हुआ। आइक्खे-धर्म कथा को कहे। विभए-विभाग करे अर्थात् द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव को देखकर धर्म कथा कहे। किट्टे-और व्रतों के फल को कहे। वेयवी-आगमों का वेत्ता-जानकार। से-वह-आगमवित्। __उठ्ठिएसु वा-जो धर्म श्रवण करने के लिए उद्यत हैं या संयम में सावधान हैं उनको अथवा। अणुट्ठिएसु वा-जो श्रावकादि धर्म में या संयम में उपस्थित नहीं है तथा। सुस्सूसमाणेसु-जो धर्म सुनने के इच्छुक हैं, उनको। पवेयए-धर्म सुनाए, उन्हें कैसा धर्म सुनाए अब इसके सम्बन्ध में कहते हैं। संति-शान्ति-क्षमा। विरई-विरति। उवसमं-उपशम-कषायों को उपशांत करना। निव्वाणं-निर्वाणनिवृत्ति । सोयं-शौच-निर्दोष व्रताचरण। अज्जवियं-आर्जव-ऋजुता। मद्दवियंमृदुता-मार्दव, मृदुभाव, । लाघवियं-लाघवता-लघुभाव। अणइवत्तियं-आगम का अतिक्रम न करके, अर्थात् आगम के अनुसार इनका कथन करे। सव्वेसिं-सर्व। पाणाणं-प्राणियों के प्रति। सव्वेसिं-सर्व। भूयाणं-भूतों के प्रति, अर्थात् भव्यं