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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
की भांति विषय-सुखों से सर्वथा पराङ्मुख होकर आगम के अनुरूप क्रियानुष्ठानसाधना का पालन करने में सदा संलग्न रहे। इस प्रकार मैं कहता हूं। हिन्दी-विवेचन
प्रस्तुत सूत्र में साधना की पूर्व एवं उत्तर स्थिति का एक चित्र उपस्थित किया है। इसमें बताया गया है कि कुछ साधक त्याग-विराग पूर्वक घर का एवं विषय-भोगों का त्याग करने के लिए उद्यत होते हैं। परिजन उन्हें घर में रोकने का प्रयत्न करते है। परन्तु, वे उनके प्रलोभनों में नहीं आते और पारिवारिक बन्धन को तोड़कर संयम स्वीकार कर लेते हैं और निष्ठापूर्वक संयम का पालन करते हैं। वे संयम में किसी प्रकार का भी दोष नहीं लगाते हैं।
परन्तु, मोह कर्म के उदय से वे विषय-भोगों में आसक्त होकर संयम का त्याग कर देते हैं। वर्षों की घोर तपश्चर्या को क्षणभर में धूल में मिला देते हैं। सिंह की तरह गर्जने वाले गीदड़ की तरह कायर बन जाते हैं। भोगों में अति आसक्त रहने के कारण वे जल्दी ही मर जाते हैं। उनमें से कुछ जीवित भी रहते हैं, परन्तु पथभ्रष्ट हो जाने के कारण लोगों में उनका मान-सम्मान नहीं रहता है। जहां जाते हैं, वहां निन्दा एवं तिरस्कार ही पाते हैं। इस तरह वे वर्तमान एवं भविष्य के या इस लोक एवं परलोक-दोनों लोकों के जीवन को बिगाड़ लेते हैं। ____ अतः उनके दुष्परिणाम को देखकर साधक को सदा विषय-वासना से दूर रहना चाहिए। ज्ञान एवं आचार की साधना में सदा संलग्न रहना चाहिए। जो साधक सदा-सर्वदा विवेकपूर्वक संयम का परिपालन करता है और आचार-विचार को शुद्ध रखता है, वह अपनी आत्मा का विकास करता हुआ एक दिन निष्कर्म बन जाता है।
'त्तिबेमि' की व्याख्या पूर्ववत् समझें।
॥ चतुर्थ उद्देशक समाप्त ॥