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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
हिन्दी-विवेचन
साधना का पथ फूलों का नहीं, शूलों का मार्ग है। त्याग के पथ पर बढ़ने वाले साधक के सामने अनेक मुसीबतें, कठिनाइयां एवं परेशानियां आती हैं। उसे प्रत्येक पग पर परीषहों के शूल बिछे मिलते हैं। कभी समय पर अनुकूल भोजन नहीं मिलता, तो कभी अनुकूल पानी की कमी रह जाती है। कभी ठहरने के लिए व्यवस्थित मकान उपलब्ध नहीं होता, तो कभी ठीक शय्या नहीं मिलती। इसी प्रकार गर्मी-सर्दी, वर्षा, भोगोपभोग आदि अनेक परीषह सामने आते हैं। इस प्रकार साधना का मार्ग परीषहों से भरा-पूरा है। एक विचारक ने ठीक ही कहा है-'श्रेयस्कर-कल्याणप्रद मार्ग में अनेक विघ्न आते हैं। उन पर विजय प्राप्त करने वाला साधक ही अपने साध्य को सिद्ध कर सकता है।
परन्तु, कुछ साधक परीषहों के प्रबल थपेड़ों को सहन नहीं कर सकते। मोहोदय के कारण वे एकदम फिसल जाते हैं और पथ भ्रष्ट होते समय लोकभय एवं लज्जा का भी त्याग कर देते हैं। इस तरह वे विवेक विकल साधक दुर्लभता से प्राप्त चिन्तामणि (संयम) रत्न को खो देते हैं। वे संयम का त्याग कर फिर से गृहस्थ जीवन में प्रविष्ट हो जाते हैं। कुछ साधक महाव्रतों का त्याग कर देते हैं, परन्तु देशव्रत से नहीं गिरते। कुछ साधक चारित्र व्रतों से गिर कर भी दर्शन-सम्यक्त्व से नहीं गिरते। परन्तु, कुछ साधक दर्शन से भी भ्रष्ट हो जाते हैं। ऐसे व्यक्ति विषय-कषाय में आसक्त होकर अनन्त काल तक संसार में परिभ्रमण करते हैं।
वे भोगेच्छा को पूरी करने के लिए संयम का परित्याग करते हैं और रात-दिन भोगों में आसक्त रहते हैं, फिर भी उनकी भोगेच्छा पूरी नहीं होती। क्योंकि इच्छा, तृष्णा एवं कामना अनन्त है, अपरिमित है और जीवन या आयु सीमित है। इसलिए भोगासक्त व्यक्ति सदा अतृप्त ही रहता है। मृत्यु के अन्तिम क्षण तक उसकी आकांक्षाएं, तृष्णाएं एवं वासनाएं जागृत ही रहती हैं और वह इन्हीं में गोते लगाते हुए अपनी आयु को समाप्त कर देता है और उस वासना से आबद्ध कर्मों के अनुसार संसार में परिभ्रमण करता रहता है।
अतः साधु को विषय-वासना के प्रवाह में नहीं बहना चाहिए और परीषहों के समय भी अडिग एवं स्थिर रहना चाहिए, ऐसे साधु के जीवन का उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैं