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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
10-मूकरोग-इस रोग के कारण मनुष्य गूंगा हो जाता है। वह बोल नहीं सकता। यह 65 प्रकार का है और 7 स्थानों में होता है। वे स्थान ये हैं-1-आठ
ओष्ठ के, 2-पन्द्रह दन्त मूल के, 3-आठ दांतों के, 4-पांच जिह्वा के, 5-नौ ताल के, 6-सत्रह कण्ठ के और 7-तीन सब स्थानों के, इस प्रकार कुल मिलाकर 65 प्रकार के होते हैं।
11-शून्यत्व-इसमें अंगोपांग शून्य हो जाते हैं। यह रोग वात, पित्त, श्लेष्म, सन्निपात, रक्त और अतिघात से उत्पन्न होता है।
12-भस्मक-यह रोग वात-पित्त की अधिकता एवं कफ की कमी से होता है। इसमें भूख अधिक लगती है, भोजन करते रहने पर भी तृप्ति नहीं होती। __13-कंपरोग-इससे शरीर कांपता रहता है। यह रोग वायु के प्रकोप से होता
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14-पीठसी-इस रोग में रोगी लाठी के आश्रय से ही चल सकता है। . 15-श्लीपद-इस रोग में पैर बहुत बड़ा एवं भारी हो जाता है।
16-मधुमेह-इसमें मूत्र में मधु जाता है। इससे अँगरेजी में डायबिटीज या शुगर (चीनी) की बीमारी कहते हैं।
इस प्रकार विषय-भोगों में आसक्त व्यक्ति अनेक प्रकार के कष्टों का संवेदन करता हुआ संसार में परिभ्रमण करता है। अतः मुमुक्षु पुरुष को सम्यग्ज्ञान से भोगासक्ति के परिणामस्वरूप प्राप्त कष्टों एवं उनसे छुटकारा पाने के स्वरूप को जानकर संयम का पालन करना चाहिए, क्योंकि ज्ञान से ही साधक संयम के पथ को जान सकता है और फिर उसका आचरण करके निरावरण ज्ञान को प्राप्त करके सिद्ध-बुद्ध एवं मुक्त बन सकता है। अतः साधक को सदा साधना में संलग्न रहना चाहिए। इसी विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम्-तं सुणेह जहा तहा संति पाणा अंधा तमसि वियाहिया, तमेव सइं असई अइअच्च उच्चावयफासे पडिसंवेएइ, बुद्धेहिं एयं पवेइयं-संति पाणा वासगा, रसगा, उदए-उदएचरा आगास गामिणो पाणा पाणे किलेसंति, पास लोए महब्भयं॥174॥