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पंचम अध्ययन, उद्देशक 5
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हिन्दी - विवेचन
प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि यदि ज्ञानावरण कर्म के उदय से श्रुतज्ञान अधिक न हो, तब भी साधक को जिन प्रवचन पर श्रद्धा रखनी चाहिए। उसे वीतराग द्वारा प्ररूपित वचनों में शंका नहीं करनी चाहिए। क्योंकि सर्वज्ञ प्रभु ने धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव आदि पदार्थों का एवं जीवाजीव, पुण्य-पाप, आस्रव-संवर निर्जरा-बन्ध एवं मोक्ष आदि तत्त्वों का जो वर्णन किया है, वह अपने ज्ञान में देखकर किया है। उनके ज्ञान में दुनिया का कोई भी पदार्थ अनदेखा नहीं रह सकता है अतः उनके प्रवचन में पूर्णतः यथार्थता है । इस कारण उनके द्वारा प्ररूपित तत्त्वों पर पूर्ण श्रद्धा रखनी चाहिए। इस तरह जिन वचनों पर श्रद्धा-निष्ठा रखने वाला सम्यग्दर्शन को प्राप्त करके आत्मा विकास की ओर उन्मुख होता है ।
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संशय का कारण मोह कर्म है और मोह कर्म का उदय साधु एवं श्रावक जीवन में भी हो सकता है। अतः साधु के मन में भी श्रुतज्ञान-आगमों में संशय हो सकता है और संशय से आत्मा का पतन होता है । अतः संशय उत्पन्न होने पर साधु को यह सोच-विचार कर अपने संशय को नष्ट कर देना चाहिए कि जिनेश्वर भगवान ने जो कुछ कहा है, वह सत्य एवं संशय रहित है, मेरे ज्ञान की कमी के कारण मैं पूरी तरह समझ नहीं पा रहा हूँ। परन्तु इन वचनों में असत्यता नहीं है । इस तरह साधक को . संशय रहित होकर संयम का परिपालन करना चाहिए। एक आचार्य ने भी कहा है“वीतराग भगवान सर्वज्ञ एवं सर्वदर्शी होते हैं, वे कभी भी मिथ्या भाषण नहीं करते ।” अतः उनका प्रवचन सर्वथा सत्य एवं सत्यार्थ का प्रतिपादन करने वाला होता है । वीतरागा हि सर्वज्ञा, मिथ्या न ब्रुवते क्वचित् । यस्मात्तस्माद् वचस्तेषां, तथ्यं भूतार्थ दर्शनम्॥
इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम् - सिड्ढस्स णं समणुन्नस्स संपव्वयमाणस्स समियंति मन्नमाणस्स एगया समिया होइ 1, समियंति मन्न्माणस्स एगया असमिया होइ 2, असमयति मन्नमाणस्स एगया समिया होइ 3, असमयंति मन्नमाणस्स एगया असमिया होइ 4, समयंति-मन्नमाणस्स