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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
सम्यक् श्रद्धा से आत्मा विकास के पथ पर अग्रसर होता है और अयोगि अवस्था में पहुंचकर पूर्णता को प्राप्त कर लेता है। इस विकास क्रम में श्रद्धा का महत्त्वपूर्ण स्थान है । सम्यक् श्रद्धा के बल पर ही साधक साध्य को सिद्ध कर पाता है। इसलिए आगम में श्रद्धा को परम - अत्यन्त दुर्लभ बताया गया है, क्योंकि श्रद्धा पूर्वक पढ़ा गया श्रुत सम्यग्श्रुत कहलाता है और श्रद्धा पूर्वक स्वीकार किया गया आचरण ही सम्यक् चारित्र के नाम से जाना-पहचाना जाता है। श्रद्धा या सम्यग्दर्शन के अभाव में ज्ञान एवं चारित्र दोनों सम्यग् नहीं रह पाते ।
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सम्यक् श्रद्धा के अभाव में चारित्र भी सम्यग् नहीं रहता है। श्रद्धा विहीन साधक के चित्त में संशय एवं परिणामों में स्थिरता नहीं रहती है और इस कारण उसके चित्त में समाधि भी नहीं रहती । क्योंकि समाधि शान्त चित्त की स्थिरता पर आधारित है और चित्त की स्थिरता शुद्ध श्रद्धा पर अवलम्बित है। अतः साधक को आचार्य एवं तीर्थंकरों के वचनों पर तथा श्रुत पर विश्वास रखना चाहिए। जो साधक श्रुत पर विश्वास रखता है और उसके अनुसार प्रवृत्ति करता है, उसके मन में चंचलता एवं अस्थिरता नहीं होती है। इससे वह शांति को, पूर्ण सुख को प्राप्त कर लेता है । परन्तु रात-दिन संशय में पड़ा हुआ व्यक्ति शांति को नहीं पा सकता। कहा भी है “संशयात्मा विनश्यति”, अर्थात् संशय में निमग्न व्यक्ति अपना विनाश करता है ।
इसलिए साधक को संशय का त्याग कर निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा रखनी चाहिए। अपनी श्रद्धा को तेजस्वी बनाने के लिए साधक को क्या चिन्तन करना चाहिए। इस सम्बन्ध में सूत्रकार कहते हैं
मूलम् - तमेव सच्चं नीसंकं जं जिणेहिं पवेइयं ॥ 163॥
छाया - तदेव सत्यं निःशंकं यज्जिनैः प्रवेदितम् ।
पदार्थ - तमेव - वह पदार्थ - तत्त्वज्ञान | सच्चं - सत्य है । नीसंकं - संशय रहित है। जं- जो । जिणेहिं - जिन भगवान के द्वारा । पवेइयं - कहा गया
है
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मूलार्थ - जो तत्त्वज्ञान जिनेन्द्र भगवान द्वारा कहा गया है, वह सत्य एवं संशय रहित है।
1. सद्धा परं दुल्लहा