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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
जीवों को आश्रय देता है, उसी प्रकार सर्प आदि को भी आश्रय देता है और सर्प-सिंह आदि हिंसक जन्तुओं की भी प्यास बुझाता है। इस गुण से उसकी समभाव वृत्ति का भी बोध होता है। इन चार बातों से ही जलाशय-सरोवर का महत्त्व एवं श्रेष्ठता बताई गई है।
__ आचार्य का जीवन भी सरोवर के समान होता है। उनके जीवन में कहीं भी विषमता परिलक्षित नहीं होती और वह श्रुतज्ञान के जल से परिपूर्ण रहता है। ज्ञान सम्पन्न होने पर भी उनके जीवन में अभिमान का उदय नहीं होता। उनकी कषायें सदा उपशान्त रहती हैं और वे संघ में स्थित साधकों के संरक्षण में सदा तत्पर रहते हैं। वे समभाव से प्रत्येक साधक की उन्नति के लिए प्रयत्न करते हैं। छोटे-बड़े का, विद्वान-मूर्ख का उनके मन में भेद नहीं रहता। सबके साथ समानता का व्यवहार करते हैं।
प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त “पबुद्धा, पन्नाणमंता, आरम्भोवरया" इन तीन पदों से रत्नत्रयी का बोध कराया गया है। प्रबुद्ध शब्द से सम्यग्दर्शन, प्रज्ञावंत शब्द से सम्यक् ज्ञान और आरम्भ से निवृत्त शब्द से सम्यक् चारित्र का बोध होता है और आचार्य एवं साधु दोनों रत्नत्रय के आराधक हैं। अतः श्रुत सम्पन्न आचार्य एवं साधु को जलाशय के समान श्रेष्ठ बताया गया है।
इस तरह श्रुत सम्पन्न आचार्य साधु के आदर्श जीवन का उल्लेख करते हुए सूत्रकार ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि तुम स्वयं मध्यस्थ-निष्पक्ष भाव से अनुभव करो देखो! इस कथन से अन्धश्रद्धा का उच्छेद किया गया है। साधक को अपनी निष्पक्ष बुद्धि से गुणों को समझने का अवसर दिया गया है। इस कथन से स्वतन्त्र चिन्तन को प्रोत्साहन मिलता है। इस तरह साधक को श्रुत सम्पन्न आचार्य के . अनुशासन में समाधि मरण की आकांक्षा रखते हुए रत्नत्रय के विकास में संलग्न रहना चाहिए। जीवन में मृत्यु का आना निश्चित है। अतः साधु को मृत्यु से डरना नहीं चाहिए, बल्कि समभाव पूर्वक समाधि मरण की आकांक्षा रखनी चाहिए, क्योंकि समाधि मरण से साधक अशुभ कर्मों की निर्जरा करता हुआ, एक दिन इसी मरण से निर्वाण पद को पा लेता है। अतः साधक को समाधि मरण की आकांक्षा रखने का आदेश दिया गया है।