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पंचम अध्ययन, उद्देशक 4
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प्रवाह में उसे अपने हिताहित का भी खयाल नहीं रहता। इसलिए वह कर्त्तव्य मार्ग से च्युत होकर पतने के गर्त में गिरने लगता है। आवेश के नशे में उसको भाषा पर भी अंकुश नहीं रहता। गुरु के सामने भी वह अंट-संट बकने लगता है और अपने आंतरिक दोषों को न देख कर गुरु के दोष निकालने का प्रयत्न करता है और अपने दोषों पर परदा डालने के लिए वह दूसरे साधकों के दोषों को सामने रख कर अपने आपको निर्दोष सिद्ध करने का प्रयत्न करता है। वह समझता है कि गुरु मुझे हित शिक्षा नहीं दे रहे हैं, अपितु सबके सामने मेरा तिरस्कार कर रहे हैं। इसलिए वह आवेश के वश गुरु के वचनों का अनादर करके तथा उन्हें भला-बुरा कहकर अकेला विचरने लगता है। परन्तु वय एवं श्रुत से अव्यक्त होने के कारण वह संयम मार्ग पर स्थिर नहीं रह सकता। रोग आदि कष्ट उपस्थित होने पर वह घबरा जाता है। उन परीषहों को सह नहीं पाता और परिणामस्वरूप अनेक दोषों का सेवन करने लगता है। इस तरह आवेश के वश संघ से पृथक् होकर विचरने वाला साधक चारित्र से गिर जाता है। अतः अव्यक्त साधु को गुरु की सेवा में रहते हुए क्रोध आदि कषायों के वश में नहीं होना चाहिए।
गुरु की सेवा में रहकर संयम का परिपालन करना चाहिए और सावधानी एवं विवेक के साथ सभी क्रियाएं करनी चाहिए और कभी भूल हो जाने पर उसका संशोधन करके उस दोष को निष्फल करने का प्रयत्न करना चाहिए। इस बात को बताते हुए सूत्रकार कहते हैं. मूलम्-से अभिक्कममाणे पडिक्कममाणे संकुचमाणे पसारेमाणे विणिवट्टमाणे संपलिमज्जमाणे, एगया गुणसमियस्स रीयओ कायसंफासं समणुचिन्ना एगतिया पाणा उद्दायंति, इहलोगवेयणविज्जावडियं, जं
आउट्टिकयं कम्मं तं परिन्नाय विवेगमेइ, एवं से अप्पमाएण विवेगं किट्टइ वेयवी॥159॥
छाया-स अभिक्रामन् प्रतिकामन् संकुचन् प्रसारयन् विनिवर्तमानः संपरिमृजन् एकदा गुणसमितस्य रीयमाणस्य-कायसंस्पर्श समनुचीर्णाः एके प्राणाः-प्राणिनः अपद्रान्ति इह लोके वेदनवेद्या पतितं यत् आकुट्टी-कृतंकर्म तत् परिज्ञाय विवेकमेति एवं तस्य अप्रमादेन विवेकं कीर्तंयति वेदवित् ।