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________________ 574 श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध रहने की आज्ञा देनी चाहिए। त्तिबेमि-इस प्रकार मैं कहता हूँ। मूलार्थ-जो साधक कुशल है, निपुण है, वह विषय-भोगों का आसेवन नहीं करता। परन्तु कुछ दुर्बुद्धि साधक विषय-वासना का सेवन करके भी गुरु आदि के पूछने पर उसे छिपाने का प्रयत्न करते हैं। वे कहते हैं कि हमने मैथुन का सेवन नहीं किया। इस तरह पाप को छिपाकर रखना उन मन्दबुद्धि साधकों की दूसरी अज्ञानता है। बुद्धिमान साधक विषयों की प्राप्ति होने पर भी उस ओर अपने योगों को नहीं लगाते। वे उनके विपाक-फल का विचार कर उनका सेवन नहीं करते और अन्य साधकों को भी उनसे बचकर रहने का आदेश देते हैं। हिन्दी-विवेचन प्रस्तुत सूत्र में बुद्धिमान साधकों की बुद्धिमत्ता, मूों की अज्ञानता एवं बुद्धिमानों के कर्त्तव्य का दिग्दर्शन कराया गया है। बुद्धिमान वह है जो किसी भी परिस्थिति में अपने साधनापथ से विचलित नहीं होता है। जिस वस्तु को संसार परिभ्रमण का कारण समझ कर त्याग कर दिया, उसे फिर स्वीकार करना या उसे ग्रहण करने की मन में कल्पना करना अज्ञानता का परिचायक है। प्रबुद्ध पुरुषं किसी भी स्थिति में परित्यक्त विषय-भोगों के आसेवन की इच्छा नहीं रखते। वे सदा भोगों से दूर रहते हैं, क्योंकि वे उसके दुष्परिणामों से परिचित हैं। परन्तु, जो मूर्ख हैं, वे त्याग के पथ पर चलकर भी भटक जाते हैं, विषयवासना के साधनों को देखते ही वे उसके प्रवाह में बह जाते हैं और उसका आसेवन करके भी उसे छिपाने का प्रयत्न करते हैं। वे अपने दुष्कर्म को स्वीकार नहीं करते। गुरु के पूछने पर कहते हैं कि मैंने कोई दुष्कर्म नहीं किया। इस प्रकार पहले तो पाप कर्म में प्रवृत्त होते हैं और फिर उसे छिपाने के लिए दूसरे पाप कर्म का सेवन करते हैं। यह उनकी दूसरी अज्ञानता है। इससे उनका जीवन पतन के गर्त में गिरता है और वे संसार में परिभ्रमण करते रहते हैं। प्रबुद्ध पुरुष विषय-भोगों के कट परिणाम एवं बाल-अज्ञानी जीवों द्वारा आसेवित विषय-भोगों एवं माया-मृषावाद के दुष्परिणामों को भली-भांति जानते हैं। इसलिए भोग्य-पदार्थों के उपलब्ध होने पर भी वे उसका सेवन नहीं करते हैं। वस्तुतः सच्चा त्यागी वही है, जो स्वतन्त्रतापूर्वक प्राप्त प्रिय भोगों का हृदय से त्याग कर देता है, . .
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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