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चतुर्थ अध्ययन, उद्देशक 3
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संपन्न होने पर भी आरम्भ-समारम्भ एवं पापों से बच नहीं सकता और हिंसादि दोषों में प्रवृत्त होने के कारण पापकर्म का संग्रह करके संसार में परिभ्रमण करता है। अतः त्यागी मनुष्य ही वास्तव में विद्वान है।
दुःख का मूल कारण कर्म ही है और कर्म का बीज राग-द्वेष एवं हिंसा आदि दोषजन्य प्रवृत्ति है। इसलिए तीर्थंकरों ने सब प्रकार के कर्मों को छोड़ने का उपदेश दिया है, क्योंकि कर्म छोड़ने का अर्थ है-राग-द्वेष का क्षय करना। राग-द्वेष कर्म का मूल है और जब मूल का नाश हो जाएगा तो फिर कर्मवृक्ष तो स्वतः ही सूखकर लूंठ हो जाएगा, निःसत्त्व हो जाएगा। इससे स्पष्ट है कि तीर्थंकरों ने हिंसा आदि दोषों का त्याग करके वीतराग अवस्था को प्राप्त करने का उपदेश दिया है।
निष्कर्ष यह निकला कि कर्मक्षय का सर्वश्रेष्ठ मार्ग है-सत्य और संयम का परिपालन और वह महापुरुषों की संगति से ही प्राप्त हो सकता है। अतः, साधक को अपनी निष्ठा-श्रद्धा को शुद्ध बनाए रखने एवं तप तथा त्याग में तेजस्विता लाने के लिए ज्ञान एवं चारित्रहीन व्यक्तियों की संगति का त्याग करके चारित्र-निष्ठ व्यक्तियों की सेवा करनी चाहिए, उनके पास बैठना चाहिए।
संसार एवं कर्मों के यथार्थ स्वरूप का परिज्ञान होने से श्रद्धा में दृढ़ता आ जाती है। अतः उसके बाद साधक को कर्मों को क्षय करने का प्रयत्न करना चाहिए। कर्म-क्षय की साधना का उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम्-इह आणाकंखी पंडिए अणिहे, एगमप्पाणं संपेहाए धुणे सरीरं, कसेहि अप्पाणं जरेहि अप्पाणं जहा जुन्नाई कट्ठाई हव्ववाहो पमत्थइ। एवं अत्तसमाहिए अणिहे, विगिंच कोहं अविकंपमाणे॥136॥
छाया-इह आज्ञाकांक्षी पंडितोऽस्नेहः आत्मानमेकं संप्रेक्ष्य धुनियात् शरीरकं, कष आत्मानं, जर आत्मानं-यथा जीर्णानि काष्ठानि हव्यवाहः प्रमथाति एवमात्मसमाहितः अस्नेहः परित्यज क्रोधमविकम्पमानः।
· पदार्थ-इह-इस जिन शासन में। आणाकंखी-भगवान की आज्ञा का आकांक्षी। पंडिए-पंडित । अणिहे-स्नेह-राग-द्वेष रहित होकर। एगमप्पाणं-अपनी एक आत्मा को। संपेहाए-भली-भांति देखे, और वह। सरीरं धुणे-शरीर को