________________
श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
ही कर्म क्षय करने में समर्थ है । मुयच्चा - जो शरीर को शृंगारित नहीं करने वाला है, तथा कषाय विजेता है। धम्मविउन्ति - श्रुत और चारित्र रूप धर्म का ज्ञाता है। अंजू - - सरल प्रकृति का है । आरंभजं दुक्खमिति - आरम्भ से उत्पन्न होने वाले दुःख को | णच्चा - जानकर । एवमाहु- इस प्रकार कहते हैं । संमत्तदंसिणोसम्यग्दृष्टि। ते सव्वे पावाइया - तथा वे सब यथार्थ वक्ता तीर्थंकरादि । दुक्खस्स - दुःख के कारण में | कुसला - कुशल । परिण्णं - परिज्ञा को । उदाहरंति-कहते हैं । इय-इस प्रकार । सव्वसो - सब प्रकार से । कम्मं - कर्म को । परिण्णाय - जानकर उसके स्वरूप को भी बताते हैं ।
554
मूलार्थ - हे आर्य! तू अन्य धर्मावलम्बी लोगों को देख और उन्हें धर्म से बाहर आचरण करते हुए जान कर उनमें मध्यस्थ भाव रख । इस लोक में जो अक्षरी ज्ञान में निपुण एवं विद्वान हैं, त्यागी व्यक्ति उनसे भी अधिक विद्वान हैं। जिसने मन-वचन और काय दण्ड का त्याग कर दिया है। जो धर्म के परिज्ञाता, कर्मों का त्याग करने वाले, शरीर का शृंगार नहीं करने वाले और सरल स्वभाव के हैं, वे आरम्भ से उत्पन्न होने वाले दुःख को जानकर उनका वर्णन करते हैं। वे सम्यग्दृष्टि कहते हैं कि सभी तीर्थंकर दुःख के कारणों को जानने में कुशल हैं, एवं परिज्ञा का उपदेश देते हैं। इस तरह सब प्रकार से कुशल व्यक्ति कर्म के स्वरूप को जानकर उसका यथार्थ विवेचन करते हैं ।
हिन्दी - विवेचन
प्रस्तुत सूत्र में सम्यक्त्व को दृढ़ बनाए रखने का उपदेश दिया है। धर्मनिष्ठ व्यक्ति को विपरीत बुद्धि एवं आचरण में प्रवृत्त व्यक्तियों का साथ नहीं करना चाहिए। वे कितने भी पढ़े-लिखे एवं प्रौढ़ विद्वान भी क्यों न हों, परन्तु सम्यग् ज्ञान एवं आचरण के अभाव कारण, वे वास्तविक त्यागनिष्ठ मुनि की समता नहीं कर सकते । इसलिए त्यागी सन्त को उनसे भी अधिक विद्वान कहा है। इसका कारण यह है कि जो सम्यग्दृष्टि है; वह संसार के स्वरूप को भली-भांति जानता है और यह भी जानता है कि आरम्भ-समारम्भ में प्रवृत्त होने से पाप-कर्म का बन्ध होगा और संसार परिभ्रमण बढ़ेगा। इसलिए वह अपने योगों को हिंसा आदि दोषों से बचाकर रखता है, परन्तु, जिसे अपने स्वरूप एवं लोक का यथार्थ ज्ञान नहीं है, वह अक्षरी ज्ञान से.