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चतुर्थ अध्ययन, उद्देशक 2
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.. मूलम्-आघाइ नाणी इह माणवाणं संसारपडिवण्णाणं संबुज्झमाणाणं विन्नाणपत्ताणं, अट्टावि संता अदुवा पमत्ता अहासच्चमिणं त्तिबेमि, नाणागमो मच्चुमुहस्स अत्थि, इच्छा-पणीया वंकानिकेया कालगहीया निचयनिविट्ठा पुढो पुढो जाइं पकप्पयंति॥132॥
छाया-आख्याति ज्ञानी इह मानवानां संसारप्रतिपन्नानां सम्बुध्यमानानां विज्ञानप्राप्तानामार्ता अपिसन्तः अथवा प्रमत्ताः यथा सत्यमिदमिति ब्रवीमि, नानागमो मृत्युमुखस्यास्ति इच्छा प्रणीताः वंकानिकेताः कालगृहीताः निचयनिविष्टाः पृथक् पृथग् जातिं प्रकल्पयन्ति। ___ पदार्थ-नाणी-ज्ञानी। इह-इस प्रवचन में वा संसार में। माणवाणं-मनुष्यों को। संसार पडिवण्णाणं-संसार प्रतिपन्नों को। संबुज्झमाणाणं-जो सम्यग् प्रकार से बोध को प्राप्त हुए हैं, उनको-विण्णाण पत्ताणं-विज्ञान प्राप्तों को। अट्टाविसंता-किसी प्रकार से आर्त हुओं को। अदुवा-अथवा। पमत्ता-विषयों में निमग्न चित्त वालों को। आघाइ-धर्म को कहता है। सच्चमिणं-यह विषय सत्य है। तिबेमि-इस प्रकार मैं कहता हूँ। अहा-जैसे दुर्लभ सम्यक्त्व को प्राप्त कर, चारित्र के विषय में प्रमाद नहीं करना चाहिए, क्योंकि। नाणागमो मच्चु मुहस्स अत्थि-ऐसा नहीं है कि मृत्यु के मुख में कोई जीव नहीं आएगा, अपितु अवश्य ही आएगा। इच्छापणीया-इच्छा के वश होकर संसाराभिमुख हुए। वंकानिकेया-असंयम के आश्रयभूत। कालगहीया-काल से। गृहीत-पकड़े हुए। निचय निविट्ठा-कर्म के निचय में निविष्ट । चित्त-सावद्य कर्म के करने में अत्यन्त आसक्त। पुढो-पुढो-पृथक्-पृथक् । जाइं-एकेन्द्रियादि जाति को। पकप्पयंतिप्रकल्पन करते हैं, अर्थात् एकेन्द्रियादि विभिन्न जातियों में परिभ्रमण करते हैं।
मूलार्थ-प्रबुद्ध-ज्ञानी पुरुष इस संसार में संसार-प्रतिपन्न, बोध एवं विज्ञान का ज्ञाता, आर्त और प्रमत्त मनुष्यों को कहता है कि तुम्हें धर्म-परिपालन या संयम-साधना में कभी भी प्रमाद नहीं करना चाहिए। क्योंकि यह कथन सत्य नहीं है कि संसारी जीव मृत्यु के मुख में नहीं जाता अथवा वह अवश्य मरता है, और इच्छा-आकांक्षा एवं असंयम में संलग्न संसाराभिमुख व्यक्ति आरम्भ-समारंभ में