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चतुर्थ अध्ययन, उद्देशक 1
533 खेयण्णेहिं-जीवों के दुःखों को जानने वालों ने। पवेइए-प्रतिपादन किया है। तंजहा-जैसे कि। उट्ठिएसु-जो धर्म सुनने के लिए तैयार हैं। वा-अथवा। अणुट्ठिएसु-जो अनुद्यत हैं। वा-अथवा। उवट्ठिएसु-जो धर्म सुनने के लिए उपस्थित हैं। वा-अथवा। अणुवट्ठिएसु-अनुपस्थित हैं। वा-अथवा । उवरयदंडेसुजो मन-वचन और काया के दंड से उपरत हैं। वा-अथवा जो। अणुवरयदंडेसु-दंड से उपरत नहीं हैं। वा-अथवा। सोवहिएसु-जो उपाधि से युक्त हैं। वा-अथवा। अणोवहिएसु-जो उपधि से रहित हैं। वा-अथवा। संजोगरएसु-माता-पिता के संयोग में रक्त हैं। वा-अथवा। असंजोगरएसु-जो संयोग रत नहीं हैं-एकान्त भावना के ऊपर आश्रित हैं, इनके प्रति भगवान ने धर्मदेशना दी है। एयं-वह। तच्च-सत्य है। च-नियमार्थ है। तहा-तथा। चेयं-एतद् वस्तु अहिंसा धर्म। अस्सिं-इस मौनेन्द्र प्रवचन में सम्यक् मोक्ष-मार्ग के विधान करने वाली। चेयं-यह शिक्षा। पवुच्चइ-प्रकर्ष से कही गई है।
मूलार्थ-आर्य सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य जम्बू से कहते हैं कि हे आर्य! जिस प्रकार मैंने भगवान के मुख से श्रवण किया है, उसी प्रकार मैं तुम्हारे को कहता हूँ-जो अरिहंत भगवन्त अतीत काल में हो चुके हैं, वर्तमान काल में हैं, तथा आगामी काल में होंगे, वे सब इस प्रकार भाषण करते हैं, इस प्रकार कहते हैं, इस प्रकार प्रज्ञापित करते हैं, इस प्रकार प्ररूपण करते हैं-सब प्राणी, सब भूत, सब जीव और सब सत्त्वों को न मारना चाहिए, न अन्य व्यक्ति के द्वारा मरवाना चाहिए, न बलात्कार से पकड़ना चाहिए, न परिताप देना चाहिए, न उन पर प्राणापहार-उपद्रव करना चाहिए, यह अहिंसा रूप धर्म ही शुद्ध है, नित्य है, शाश्वत है, लोक के दुःखों का विचार कर खेदज्ञ पुरुषों ने इसका वर्णन किया है, जैसे कि जो अहिंसा धर्म के सुनने के लिए उद्यत हैं अथवा अनुद्यत हैं, उपस्थित हैं, वा अनुपस्थित हैं, मन-वचन और काय रूप दण्ड से उपरत हैं वा अनुपरत हैं, सोपधिक हैं अथवा उपधि रहित हैं, संयोग में रत हैं वा संयोग से उपरत हैं, इन सबको अहिंसा रूप धर्म सुनाना चाहिए। कारण यह कि धर्म सत्य है, मोक्ष-प्रदाता है, जैनागम में इस अहिंसानिष्ठ धर्म का प्रकर्ष रूप से वर्णन किया गया है। अतः प्रत्येक साधक को इस शुद्ध एवं शाश्वत धर्म पर श्रद्धा रखनी चाहिए।