SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 59
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 50 ब्रह्म का मुख्य अर्थ है-विश्व का एक मूल तत्त्व या आत्म तत्त्व, उसकी प्राप्ति या साक्षात्कार की चर्या-ब्रह्मचर्य है। बौद्धों में मैत्री, प्रमोद, उपेक्षा और करुणा, इन चार भावनाओं में विचरण करना ‘ब्रह्म विहार' माना है। जबकि आचारांग में ब्रह्म का अर्थ है-संयम। अतः संयम का आचरण करना ब्रह्मचर्य है। जैन दृष्टि से अहिंसा, समभाव या समत्व की साधना का ही नाम संयम है और इसी को सामायिक की साधना कहा है। गीता में समत्व भाव को योग कहा है और इसे ब्रह्म भी माना है। आचारांग एवं गीता में इस बात को स्पष्टतः स्वीकार किया गया है कि आध्यात्मिक दृष्टि अहिंसा एवं समभाव की साधना के मूल में ही है। आचारांग में अहिंसा एवं समभाव की साधना का ही उपदेश दिया गया है। अतः उसका ब्रह्मचर्य अध्ययन नाम सार्थक है। नियुक्तिकार का यह कथन भी नितान्त सत्य है कि आचारांग सब अंगों का सार है; क्योंकि द्वादशांगी का उपदेश संयम की साधना को तेजस्वी बनाने के लिए दिया गया है और आचारांग में मुख्य रूप से संयम-साधना का ही उपदेश है और संयम ही मुक्ति का कारण है। अतः आचारांग तीर्थंकर-प्रवचन का सार है और उसका ब्रह्मचर्य नाम भी उपयुक्त एवं सार्थक है। शब्दों का आदान-प्रदान भारतीय वाङ्मय एवं सांस्कृतिक परम्परा का अध्ययन करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि भले ही श्रमण और ब्राह्मण-परम्पराएं सर्वथा अलग-अलग रही हों, परन्तु एक-दूसरी परम्परा ने परस्पर एक-दूसरे के साहित्यिक शब्दों को अपने साहित्य में ग्रहण किया है। श्रुत-साहित्य में उस युग के प्रचलित वैदिक शब्दों को निस्संकोच भाव से लिया गया है। प्रस्तुत आगम में भी ब्राह्मण-परम्परा में प्रयुक्त शब्दों को 1. स्थानांग सूत्र 429-30, समवायांग 17 2. आवश्यक सूत्र, सामायिक अध्ययन 3. समत्वं योग उच्यते।-गीता 2/48 4. इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः निर्दोष हि समं ब्रह्म तस्मात् ब्रह्मणि ते स्थिताः॥ 5. आचा. 1, 2, 3, 4, और गीता, 6/32 -गीता, 5/19
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy