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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
पदार्थ-एस-वह निष्कर्मदर्शी। मरणा-मृत्यु से। पमुच्चइ-मुक्त हो जाता है, और। से हु-निश्चय ही वह। मुणी-मुनि। बहु-बहुत। च- समुच्चयार्थ में। खलु-निश्चयार्थक है। पावकम्मं-पाप कर्म । पगडं-जो पूर्व में बंधा हुआ है या प्रकट है, उसे दूर करने के लिए वह। दिट्ठभए-भयों का द्रष्टा। लोगंसि-लोक में। परमदंसी-मोक्ष या संयम मार्ग का द्रष्टा। विवित्त जीवी-स्त्री, पशु और नपुंसक रहित निर्दोष उपाश्रय में रहने वाला या रागद्वेष रहित। उवसंते-उपशान्त रूप। समिए-पांच समिति से युक्त। सहिए-ज्ञानवान्। सया-सदा। जए-यत्नशील। कालकंखी-पंडित मरण का आकांक्षी। परिव्वए-संयम मार्ग पर चले।
मूलार्थ-निष्कर्मदर्शी जन्म-मरण से मुक्त-उन्मुक्त हो जाता है। अतः निष्कर्मदर्शी बनने का अभिलाषी मुनि पूर्व में बाँधे हुए पाप कर्म को क्षय करने के लिए वह सात भयों का द्रष्टा लोक में मोक्ष या संयम मार्ग का परिज्ञाता, शुद्ध एवं निर्दोष स्थान-उपाश्रय में ठहरने वाला, उपशांत भाव में रमण करने वाला, पांच समिति से युक्त एवं सदा यत्नशील होकर पण्डितमरण की आकांक्षा रखते हुए संयम साधना में संलग्न रहे। हिन्दी-विवेचन
जन्म-मरण कर्मजन्य हैं। आयु कर्म के उदय से जन्म होता है और क्षय होने पर मृत्यु आ घेरती है। फिर आयु कर्म उदय होने पर अभिनव योनि में जन्म होता है और उसका क्षय होते ही वह उस योनि के भौतिक शरीर को वहीं छोड़कर चल देता है। इस प्रकार वह बार-बार जन्म-मरण के प्रवाह में बहता है और बार-बार गर्भाशय एवं विभिन्न योनियों में अनेक दुःखों का संवेदन करता है। अतः जब तक कर्म बन्ध का प्रवाह चालू है, तब तक आत्मा काल-चक्र से मुक्त नहीं होता। अतः मृत्यु पर विजय पाने के लिए जन्म के कारण कर्म का क्षय करना जरूरी है। जब जीव निष्कर्म हो जाता है, तब फिर वह मृत्यु के दुःख से मुक्त हो जाता है। कारण कि निष्कर्म आत्मा का जन्म नहीं होता और जब जन्म नहीं होता तो फिर मृत्यु का तो प्रश्न ही नहीं उठता। मृत्यु जन्म के साथ लगी हुई है। हम यों भी कह सकते हैं कि जन्म का दूसरा रूप मृत्यु है। मनुष्य जिस क्षण जन्म लेता है, उसके दूसरे क्षण ही वह मृत्यु की ओर