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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
गुरुजनों का, गणनायक का कर्तव्य यह है कि पहले सभी को देखकर तत्पश्चात् ग्रहण करें। उसी प्रकार वस्त्र एवं अन्य गवेषणीय वस्तु संबन्धी विचार हैं। पहले जिसको आवश्यक है उन्हें देखें, तत्पश्चात् स्वयं का विचार करें। इस प्रकार गणनायक वह है, जो सबका खबाल रखता है और सबका खयाल रखने में समर्थ है। गणनायक का यह सामर्थ्य और यह प्रेमपूर्ण त्याग ही गण के विकास का प्रथम सोपान है।
गण में कलह का निवारण : गण में किसी प्रकार का असामंजस्य, विसंगति या कलह हो जाए तब-1. कभी भी किन्हीं भी श्रावकजनों को बीच में न लाएं, क्योंकि जो स्वयं अविरति हैं, वह विरति के मन की गति और समस्या कैसे समझ सकेगा? लेकिन इस प्रकार की मूढ़ता अनेक जन करते हैं, जिससे समस्या में वृद्धि होती है एवं शासन की भी अवहेलना होती है। श्रमण की समस्या श्रमण तक ही रहनी चाहिए, क्योंकि मूलतः श्रमण की समस्या का जन्म उसके आचार शैथिल्य, समझ में न्यूनता एवं अज्ञानवश होता है। कर्मों का प्रबल उदय भी कार्य करता है और इसका निवारण श्रमणचर्या एवं श्रमणसाधना से ही हो सकता है।
जब गणनायक. समस्या के समाधान में अड़चन महसूस करें, तब किसी ऐसे सुसाधु को, किसी ऐसे स्थविर को देखें जो समाधान दे सकें, अगर उन तक प्रत्यक्ष रूप से पहुँचना संभव न हो तो किसी अन्य माध्यम से समाचार दें, यदि बहुत ही आवश्यक लगे और समस्या अति गम्भीर हो तब अन्तिम समाधान स्वरूप किसी अति गम्भीर व्रतधारी, निष्ठा-युक्त धर्म-ध्यान में स्थिर श्रावक के द्वारा स्थविर तक समाचार दे सकते हैं।
कोई श्रावकगण के किसी साधु के सम्बन्ध में कुछ पूछे तो भी कुछ नहीं कहना, क्योंकि श्रावक में वह समझ होनी संभव नहीं है। श्रावक पर विश्वास करें परन्तु पूर्ण विश्वास नहीं। इससे शासन पर, गण पर या किसी साधु पर आपत्ति आ सकती है। क्योंकि वे रहते हैं कषायों के मध्य और कषाय-वश मन का विचलित होना स्वाभाविक है। ___गण-नायक अपने लिए ही नहीं, गण के सभी सदस्यों के लिए जिम्मेदार हैं, जिस प्रकार आचार्य संघ के लिए जिम्मेदार होता है। आचार्य जितना बड़ा हो, उतना ही त्याग, बलिदान और निस्स्वार्थता।