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________________ द्वितीय अध्ययन, उद्देशक 6 मूलार्थ - कई बार ऐसा भी होता है कि एक काय की हिंसा करते हुए छह काय की हिंसा हो जाती है और एक प्राणातिपात विरमण व्रत का भंग करने से अन्य व्रतों का भी भंग हो जाता है। भौतिक सुखाभिलाषी व्यक्ति भोगों के लिए प्रलाप करता है। अपने कर्मोदय से मूढ़ता एवं विपरीत भाव को प्राप्त होता है और विभिन्न प्रकार से प्रमाद का सेवन करने से वह व्रतों का भंग करता है और परिणाम स्वरूप अनेक योनियों में परिभ्रमण करता हुआ दुःख का संवेदन करता है । पाप कर्म में संलग्न प्राणी विभिन्न दुःखों को भोगते हैं । अतः साधक को पाप कर्म का कभी भी सेवन नहीं करना चाहिए । यही तेजस्वी एवं शक्तिशाली परिज्ञा है, इससे कर्मों का सर्वथा क्षय हो जाता है । 427 हिन्दी - विवेचन प्रस्तुत सूत्र में यह बताया गया है कि एककाय की हिंसा से छह काय की हिंसा भी हो जाती है। इसका विस्तृत विवेचन प्रथम अध्ययन में कर चुके हैं। यहां यह • 3 विशेष रूप से बताया गया है कि जैसे एककाय की हिंसा से छह काय की हिंसा होती है, उसी प्रकार एक महाव्रत के भंग होने पर शेष महाव्रत भी भंग हो जाते हैं । इसका तात्पर्य यह है कि पांचों महाव्रत एक-दूसरे से संबद्ध हैं और एक दूसरे पर आधारित हैं। जैसे साधु किसी प्राणी की हिंसा करता है तो वह केवल अहिंसा व्रत से ही च्युत नहीं होता है, अपितु अन्य व्रतों से भी गिरता है । उसकी हिंसा नहीं करने की प्रतिज्ञा असत्य हो गई, इसलिए उसका दूसरा व्रत दूषित हो जाता है और जीव की बिना • आज्ञा उसके प्राणों का अपहरण करने रूप चोरी करता है । जो व्यक्ति हिंसा के कार्य में प्रवृत्त होता है, वह किसी कामनावश होता है और कामना - वासना अब्रह्मचर्य है और उस सजीव प्राणी को ग्रहण करने रूप परिग्रह तो है ही । इस प्रकार जो साधु झूठ बोलता है, वह व्यक्ति के मन को आघात पहुंचाने रूप हिंसा करता है; वीतराग आज्ञा का उल्लंघन रूपी चोरी करता है। वह झूठ भी किसी कामना - वासना एवं आसक्तिवश बोलता है। इसलिए चौथा एवं पांचवां महाव्रत भी भंग हो जाता है । इसी प्रकार अन्य व्रतों के सम्बन्ध में भी समझना चाहिए। इससे स्पष्ट हो जाता है कि एक व्रत में दोष लगने से, शेष व्रत भी दूषित हो जाते हैं । प्रश्न- फिर मनुष्य पापकर्म में क्यों प्रवृत्त होते हैं ? "
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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