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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
कार्यों से बचकर रहना चाहिए। न स्वयं कोई पाप कर्म करना चाहिए और न अन्य व्यक्ति से पाप कर्म करवाना चाहिए, क्योंकि इससे उसके अन्य महाव्रतों में भी दोष लगता है।
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पांचों महाव्रतों का एक दूसरे के साथ सम्बन्ध रहा हुआ है। एक में दोष लगने पर दूसरा दूषित हुए बिना नहीं रहता । इसी बात को स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम् - सिया तत्थ एगयरं विप्परामुसइ छसु अन्नयरंमि कप्पर, सुहट्ठी लालप्पमाणे, सएण दुक्खेण मूढे विप्परियासमुवेइ, सएण विप्पमाएण पुढो वयं पकुव्वइ, जंसिमे पाणा पव्वहिया, पडिलेहाए नो निकरणयाए, एस परिन्ना पवुच्चइ, कम्मोवसंती॥98॥
छाया-स्यात्ततत्र एकतरं विपरामृशति षट्स्वन्यतरस्मिन् कल्प्यते सुखार्थी लालप्यमानः स्वकीयेन दुःखेन मूढः विपर्यासमुपैति स्वकीयेन दुःखेन प्रमादेन पृथग् वयं (व्रतं) प्रकरोति यस्मिन् इमे प्राणिनः प्रव्यथिताः प्रत्युपेक्ष्य नो निकरणाय एषा परिज्ञा प्रोच्यते कर्मोपशान्ति ।
पदार्थ-सिया-कदाचित्। तत्थ - उससे । एगयरं - किसी एक पृथ्वी आदि काय का। विप्परामुसइ–समारम्भ- किसी एक आस्रव से आरम्भ करता है, तो। छसु–6 काय में। अन्नयरंमि - किसी एक काय का आरम्भ करने पर । कप्पइ - प्रायः 6 काय का आरम्भ हो जाता है। सुहट्ठी - सुखाभिलाषी । लालप्पमाणे- अधिक प्रलाप करता हुआ या अपने मन, वचन और काय को उस क्रिया में लगाता हुआ । सएण-स्वकीय। दुक्खेण - दुःख से । मूढे - वह मूढ़ । विप्परियासमुवेइ - विपरीत भाव को प्राप्त होता है, और फिर । सएण - स्वकीय । विप्पमाएण - प्रमाद से । पुढो–पृथक्-पृथक् । वयं–व्रत का । पकुव्वइ - भेदन करता है। जंसिमे-इस संसार में ये । पाणा - प्राणी । पव्वहिया - विभिन्न दुःखों से संतप्त एवं पीड़ित होते हैं । पडिलेहाए - ऐसे कर्म फल को जानकर या विचार कर । नो निकरणयाए - जिससे दुःख की अभिवृद्धि होती है, वैसा कर्म न करे। एस - यह । परिन्ना - परिज्ञा । पवुच्चइ - कही जाती है, जिससे । कम्मोवसंती - कर्म उपशांत हो जाते हैं।