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अध्यात्मसार: 5
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इस प्रकार अणगार का अर्थ हुआ जिसने बाहर की शरण छोड़ कर धर्म की शरण ले ली है। घर का त्याग 'घर के प्रति रही हुई आसक्ति का त्याग', धन का त्याग अर्थात् सुरक्षा का त्याग। बाहर की जितनी भी सुरक्षाएं हैं, उनका त्याग। या तो यों कह सकते हैं जिसने मिथ्या सुरक्षा का त्याग करके सम्यक् सुरक्षा स्वीकार कर ली, वह अणगार है ।
ऐसे अणगार की यह आहार विधि है। इसमें अधिकांश स्थान पर निषेध-ही-निषेध है तो फिर इसका विधेयात्मक स्वरूप क्या है ? विधेयात्मक स्वरूप है, अपनी साधना की रक्षा करते हुए, अपनी साधना के पोषण के लिए, जो भी आहार मिले वह ग्रहण करना । यहाँ महत्त्वपूर्ण है, अपनी साधना की रक्षा करना और यह भी महत्त्वपूर्ण है जिससे अपनी साधना का पोषण होता हो ऐसा आहार लेना । इस प्रकार एक तो हुआ, किस प्रकार आहार लेना। दूसरा कैसा आहार लेना । दोनों ही बातें आवश्यक हैं। यहाँ जो भी विधि-विधान बताए गए हैं, वे किस प्रकार आहार लेना चाहिए उस सम्बन्ध में हैं। आहार कैसा लेना चाहिए? इसका वर्णन पहले हो चुका है ।
आहार तो इन विधि-विधानों के अनुसार ही लेना है और उनमें चार आगार बताए हैं- 'रोगी, बाल, वृद्ध, तपस्वी' । यह साधक को स्वयं निर्णय करना चाहिए कि किस समय, किस प्रकार उपयोग करना है । यदि वास्तव में अपवाद मार्ग से आहार लेना आवश्यक है तभी लेना, अन्यथा नहीं । अब आपको यह देखना है कि मैं जीभ
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स्वाद के लिए ले रहा हूँ या स्वास्थ्य के लिए। यदि व्यक्ति स्वयं के प्रति प्रामाणिक होगा तो स्वयमेव समझ में आ जाएगा। मूलभाव क्या है? आहार लेते समय यह ध्यान रखना कि जिससे मेरी साधना का पोषण हो । अब इसमें आहार की गुणवत्ता भी आ गयी और आहार लेने का प्रकार भी । दोनों में से किसी में भी दोष होगा, तब साधना की हानि होगी । सदा ही भीतर देखते रहना की साधना के पोषण और उसके आधार रूप यह देखना कि मैं स्वास्थ्य के लिए आहार ले रहा हूँ या इन्द्रियों के पोषण और उसके हेतु रूप जिह्वा के स्वाद के लिए आहार ले रहा हूँ ।
जिस प्रकार का आहार साधना के लिए आवश्यक है, उसी प्रकार का आहार सभी को बताना । इस प्रकार की समझ श्रावकों को देने पर उन्हें भी लाभ होगा और वे श्रमणों की साधना में भी सहयोगी बन सकेंगे।