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________________ 394 श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध परिग्रह नहीं है, परिग्रह है-उसमें राग-द्वेष एवं ममत्व भाव रखा। अतः भगवान की यह आज्ञा है कि साधक उपकरणों में आसक्ति न रखे। इस बात को सूत्रकार ने 'एस मग्गे आयरिएहिं पवेइए' इस वाक्य के द्वारा व्यक्त किया है कि उपर्युक्त मार्ग आर्यपुरुषों द्वारा प्ररूपित है। आर्य का अर्थ तीर्थंकर किया गया है। __ अतः विचारशील व्यक्ति को आर्य द्वारा प्ररूपित मार्ग पर निर्द्वद भाव से गतिशील होना चाहिए और अपने आपको समस्त पापकर्मों से सदा अलिप्त रखना चाहिए। यहां उद्देशक के मध्य में 'त्तिबेमि' का प्रयोग अधिकार की समाप्ति के लिए हुआ है। प्रस्तुत सूत्र में परिग्रह के त्याग की बात कही गई है। परिग्रह का त्याग तभी संभव है, जबकि लालसा-वासना एवं आकांक्षा का त्याग किया जाएगा। अतः सूत्रकार आगामी सूत्र में काम-वासना के स्वरूप को बताते हुए कहते हैं मूलम्-कामा दुरतिक्का , जीवियं दुप्पडिवूहगं, कामकामी खलु अयं पुरिसे, से सोयइ जूरइ, तिप्पइ परितप्पइ॥93॥ छाया-कामाः दुरितक्रमाः जीवितं दुष्प्रतिबृंहणीयं कामकामी खलु अयं पुरुषः स शोचते, खिद्यते तेपते परितप्यते। पदार्थ-कामा-काम-भोग। दुरितकम्मा-दुरितक्रम-छोड़ने कठिन हैं। जीवियं-जीवन । दुप्पडिवूहगं-वृद्धि नहीं पा सकता, इसलिए। खलु-निश्चय से। कामकामी-काम-भोगों का इच्छुक। अयं पुरिसे-यह. पुरुष अनेक दुःखों का संवेदन करता है जैसे। से-वह कामी व्यक्ति। सोयइ-शोक करता है। जूरइ-मन में खेद मानता है। तिप्पइ-रुदन करता है। परितप्पइ-परिताप को प्राप्त करता है, अर्थात् सब तरह से पश्चात्ताप करता है। मूलार्थ-काम-भोगों का परित्याग करना अति दुष्कर है। जीवन सदा क्षीण होता है, उसे बढ़ाया नहीं जा सकता है, अतः कामेच्छा से युक्त व्यक्ति अपनी वासना की पूर्ति न होने से शोक करता है, खेद करता है, रोता है, और सब प्रकार से पश्चात्ताप करता है।
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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