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द्वितीय अध्ययन, उद्देशक 5
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कि केवल वस्त्र-पात्र आदि पदार्थ परिग्रह नहीं हैं। उनमें आसक्ति रखना परिग्रह है। अतः कुशल साधक को परिग्रह का त्याग करके अपनी आत्मा को पापकर्मों से सर्वथा लिप्त नहीं होने देना चाहिए।
'अन्नहा पासए परिहरिज्जा' का अर्थ है कि अन्य प्रकार से देखता हुआ परिग्रह का त्याग करे। इसका स्पष्ट अर्थ है कि गृहस्थ, वस्त्र, पात्र; मकान, शय्या आदि साधनों को सुखरूप समझकर उनमें आसक्त रहते हैं और रात-दिन उनका संग्रह करने में संलग्न रहते हैं, परन्तु मुनि की दृष्टि इससे भिन्न होती है। वह साधनों को, उपकरणों को गृहस्थ की तरह सुखमय समझकर नहीं स्वीकार करता, अपितु संयम साधना को गतिशील बनाने के लिए उन्हें सहायक के रूप में स्वीकार करता, इसलिए वह उनमें आसक्त नहीं होता और न इस भाव से वस्त्र आदि को ग्रहण करता है कि ये साधन सुखरूप हैं। समय पर जैसे भी साधारण वस्त्र-पात्र मिल जाते हैं, उसी में संतोष मानता हुआ समभाव से साधना में संलग्न रहता है। इससे स्पष्ट होता है कि वस्त्र-पात्र आदि उपकरण परिग्रह नहीं हैं। दशवैकालिक सूत्र में भी कहा है कि वस्त्र आदि उपकरण परिग्रह नहीं है, अपितु उन पर मुर्छा रखना परिग्रह है, ऐसा भगवान ने कहा है । आचार्य उमास्वाति ने भी मूर्छा-ममत्व रखने की भावना को परिग्रह कहा है।
. साधक साधना काल में उपकरणों का सर्वथा त्याग नहीं कर सकता। उसे संयम में प्रवृत्त होने के लिए वस्त्र, पात्र, तृण-घास, फलक, मकान आदि की आवश्यकता . होती है। इन सब साधनों का सर्वथा त्याग तो 14वें गुणस्थान में ही संभव हो सकता है, जहां पहुंचकर साधक समस्त कर्मों एवं कर्मजन्य मन-वचन एवं शरीर का भी त्याग कर देता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि जब तक शरीर का अस्तित्व है, तब तक साधक को भी वस्त्र-पात्र आदि बाह्य उपकरणों का आश्रय लेना पड़ता है। इसलिए सत्रकार ने प्रस्तुत सूत्र में यह स्पष्ट कर दिया है कि वस्त्र-पात्र आदि रखना
1. न सो परिग्गहो वुत्तो, नाय पुतेण ताइणा,
___ मुच्छा परिग्गहो वुत्तो, इइ वुत्तं महेसिणा॥ 12. मूर्छा परिग्रहः।
-दशवैकालिक, 6, 21 -तत्त्वार्थ सूत्र 7, 17