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द्वितीय अध्ययन, उद्देशक 5
हैं, ऐसा जानकर । न मज्जिज्जा - अभिमान न करे और । अलाभुत्ति - मुझे आहार आदि की प्राप्ति नहीं हुई, ऐसा समझकर । न सोइज्जा - शोक या खेद न करे और । बहुपद्धुं - बहुत मिलने पर । न निहे - संग्रह न करे अर्थात् मर्यादित काल से अधिक समय तक प्रथम प्रहर का लाया हुआ आहार चतुर्थ प्रहर तक और रात्रि में संचय करके नहीं रखे, इस तरह । परिग्गह- परिग्रह से । अप्पाणं - अपनी आत्मा का। अवसकिज्जा - पीछे हटाय ।
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मूलार्थ - - आहार के प्राप्त होने पर मुनि उसके परिमाण को जाने और भगवान ' ने जिस प्रकार प्रतिपादन किया है, उसी प्रकार आचरण करे । अर्थात् आहार की प्राप्ति होने पर गर्व एवं अभिमान नहीं करे और न मिलने पर खेद या शोक न करे । अधिक आहार मिलने पर उसे मर्यादा से अधिक समय तक - प्रथम प्रहर का लाया हुआ आहार- पानी चतुर्थ प्रहर तक नहीं रखे और दिन में लाया हुआ आहार रात्रि में संग्रह करके नहीं रखे। अपने आपको परिग्रह से दूर रखे ।
हिन्दी - विवेचन
आहार आदि पदार्थ लेते समय केवल सदोषता - निर्दोषता का ज्ञान करना ही पर्याप्त नहीं है, अपितु परिमाण का भी ज्ञान होना चाहिए। क्योंकि बिना परिमाण को जाने पात्र भर लेने से संयम के स्थान में असंयम का पोषण हो जाता है । यदि परिमाण से अधिक आहार ले लिया है, तो उस गृहस्थ को अपने एवं अपने परिवार के लिए फिर से आरम्भ करना पड़ेगा। दूसरे अर्थ यह है कि अपने आहार की मात्रा का ज्ञाता हो । शरीर-निर्वाह के लिए जितने आहार की आवश्यकता है, उतना ही ग्रहण करे। जिसे अपना आहार के परिमाण का ज्ञान नहीं है, तो अधिक आहार आ जाने से, वह खा नहीं सकेगा। इससे अयतना होगी और यदि कभी खा लिया तो मर्यादा से अधिक आहार करने के कारण उसे आलस्य - प्रमाद आएगा या वह बीमार
जाएगा, जिसके कारण वह ज्ञान, दर्शन और चारित्र की सम्यक्तया साधना नहीं कर सकेगा। इसलिए मुनि को गृहस्थ के घर की स्थिति - परिस्थिति एवं अपने आहार की आवश्यकता का परिज्ञान होना चाहिए ।
इसके अतिरिक्त भगवान की यह आज्ञा है कि आहार उपलब्ध हो या न हो, दोनों अवस्थाओं में मुनि को समभाव रखना चाहिए। आहार के मिलने पर मुनि को