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आगम-श्रुत-साहित्य
• भारतीय विचारकों एवं चिन्तकों ने आत्मा-परमात्मा के सम्बन्ध में गहरी खोज की है। और अपनी शोध (Research) में जो कुछ पाया, उसे शिष्य-प्रशिष्यों को सिखाकर सुरक्षित रखने का प्रयत्न किया। इस ज्ञान-परम्परा को भारतीय संस्कृति में 'श्रुत या श्रुति' कहते हैं। 'श्रुत' का अर्थ है-सुना हुआ और 'श्रुति' का तात्पर्य है-सुनी हुई। जैन परम्परा में तीर्थंकरों द्वारा उपदिष्ट वाणी को 'श्रुत-साहित्य' कहते हैं। जैनागमों में पांच ज्ञान का उल्लेख मिलता है-1. मति ज्ञान, 2. श्रुत-ज्ञान, 3. अवधि-ज्ञान, 4. मनः-पर्यव ज्ञान और 5. केवल ज्ञान। इनमें मति और श्रुत ज्ञान को परोक्ष ज्ञान मामा गया है। द्वादशांगी का ज्ञान श्रुत-ज्ञान माना गया है। वर्तमान में उपलब्ध 11 अंग, 12 उपांग, 4 छेद शास्त्र, 4 मूल-सूत्र और आवश्यक सूत्र 'श्रुत-साहित्य' कहलाता है। श्वेताम्बर-मूर्तिपूजक सम्प्रदाय में 45 आगम 'श्रुत-साहित्य' के रूप में माने जाते हैं। क्योंकि तीर्थंकर इनके उपदेष्टा होते हैं और उनके द्वारा श्रुत-सुनी हुई वाणी को गणधर अपने शिष्यों को सुनाते हैं और वह वाणी अनागत में शिष्य-परम्परा से एक-दूसरे को सुनाई जाती है। आचारांग सूत्र के प्रारम्भ में यह सूत्र आता है-"सुयं मे आउसं! तेणं भगवया एवमक्खायं” हे शिष्य! मैंने सुना है कि उस-श्रमण भगवान महावीर ने इस प्रकार प्रतिपादन किया है। - वैदिक साहित्य में 'श्रुति' शब्द का प्रयोग होता है। श्रुति का अर्थ भी सुनी हुई बात होता है। वैदिक ऋषियों द्वारा रचित ऋचाओं एवं स्तुतियों को 'श्रुति' कहते हैं। क्योंकि ऋषियों के मुख से प्रवहमान वेद-वाणी को सुनकर शिष्यों ने उसे स्मृति में रखा और अपने शिष्य-प्रशिष्यों को सुनाकर उसके प्रवाह को सतत गतिमान रखने का प्रयत्न किया। ... जैनागमों की तरह बौद्ध ग्रंथों में 'सुतं' शब्द मिलता है। उसका अर्थ भी वही है, जो सुयं शब्द का है, अर्थात् सुना हुआ। इससे स्पष्ट होता है कि भारतीय संस्कृति की तीनों परम्पराओं में आगम के लिए प्रयुक्त श्रुति, श्रुत-सुयं और सुतं संज्ञा-नाम सर्वथा सार्थक है।