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________________ द्वितीय अध्ययन, उद्देशक 5 383 तद्रूप-साधनों या शस्त्रों का संग्रह करना समारम्भ है और उक्त विचारों को कार्य रूप में परिणत करने के लिए उन शस्त्रों का प्रयोग करने का नाम आरम्भ है। इस प्रकार विभिन्न कार्यों के लिए आरम्भ-समारम्भ और आरम्भ में प्रवृत्तमान जीवन आठ कर्मों का बन्ध करता है और परिणामस्वरूप संसार में परिभ्रमण करता है। अब प्रश्न यह होता है कि ऐसी स्थिति में संयमनिष्ठ साधु को क्या करना चाहिए? उक्त प्रश्न का समाधान करते हुए सूत्रकार लिखते हैं मूलम्-समुट्ठिए अणगारे आरिए आरियपन्ने आरियदंसी अयंसंधित्ति अदक्खु, से नाईए नाइयावए न समणुजाणइ, सव्वामगंधं परिन्नाय निरामगंधो परिव्वए॥88॥ __ छाया-समुत्थितः अनगारः आर्यः, आर्यप्रज्ञः, आर्यदर्शी अयंसन्धिः इति अद्राक्षीत् स नाददीत् नादापयेत् (नाद्यात्) न समनुजानाति, सर्वामगन्धं परिज्ञाय निरामगन्धः परिव्रजेत् । पदार्थ-समुट्ठिए-संयम साधना में उद्यत-सजग। अणगारे-मुनि। आरियआर्य-चारित्रनिष्ठ। आरियपन्ने-आर्य प्रज्ञा संपन्न-सम्यग्ज्ञान से युक्त। आरियदंशी-न्याय मार्ग का द्रष्टा। अयंसंधित्ति-साधु समाचारी-क्रियाओं का यथाकाल परिपालक। अदक्खु-समय का द्रष्टा या परिज्ञाता। से-वह मुनि। नाईए-अकल्पनीय आहार न स्वयं ग्रहण करे। न इयावए-न दूसरे मुनियों को ग्रहण करने के लिए प्रेरित करे। न समणुजाणइ-और न अकल्पनीय आहार ग्रहण करने वाले मुनि का समर्थन ही करे। सव्वामगंधं-समस्त आधाकर्म आदि दोष युक्त आहार को। परिन्नाय-ज्ञपरिज्ञा से जानकर एवं प्रत्याख्यान परिज्ञा से त्याग कर। निरामगंधो-समस्त दोषों से रहित आहार को ग्रहण करे और। परिव्वए-संयमसाधना का सम्यक्तया पालन करे। - मूलार्थ-संयम-साधना में प्रवर्त्तमान अनगार, जो कि आर्य है, आर्य प्रज्ञावान है, आर्यदर्शी-न्याय मार्ग का द्रष्टा है, यथासमय अनुष्ठान संयम का आचरण करने वाला है, वह न स्वयं दोषयुक्त आहार ग्रहण करे, न दूसरे मुनि को दोषयुक्त आहार
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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