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________________ 382 श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध है। उसका जीवन समाज एवं परिवार के साथ संबद्ध है। वह अकेला नहीं रह सकता। उसे अपने जीवन को गति-प्रगति देने के लिए दूसरों का सहारा-सहयोग भी लेना पड़ता है और देना भी। यह जीवन का एक साधारण नियम है कि बिना समन्वय के यह चल नहीं सकता। उसे गतिशील रखने के लिए एक दूसरे का सहयोग अपेक्षित है। इसी सत्य को ध्यान में रखकर आचार्य उमास्वाति ने जीव का उपकारी लक्षण बताते हुए कहा है- 'परस्पर एक दूसरे का उपकार-सहयोग करना यह जीव का लक्षण है।' इसलिए अपने पारिवारिक सदस्यों एवं जाति के अन्य स्नेही-संबन्धियों के लिए मनुष्य आरम्भ के कार्य में प्रवृत्त होता है। वह क्षुधा, पिपासा आदि वेदनीय कर्मजन्य दुःखों से निवृत्त होकर सुख एवं शांति को प्राप्त करने के लिए विभिन्न शस्त्रों से समारम्भ करता है। मनुष्य किन प्राणियों के लिए आरम्भ में प्रवृत्त होता है, उनका प्रस्तुत सूत्र में निर्देश किया गया है। उसमें पुत्र-पुत्री, पुत्रवधू, राजा, दास-दासी कर्मचारी-कर्मचारिणी, स्वजन-स्नेही आदि परिवार, जाति एवं समाज के सभी संबन्धित व्यक्तियों का समावेश कर दिया गया है। ___ 'लोगस्स' पद यहां चतुर्थी विभक्ति के अर्थ में षष्टी का प्रयोग है। 'सामासाए' और 'पायरासाए' का अर्थ करते हुए वृत्तिकार ने लिखा है-'रात्रि के पूर्व सायंकाल में तथा मध्याह्न के पूर्व प्रातः किए जाने वाले भोजन को 'सामासाए' और 'पायरासाए' कहते हैं । 'संनिधि' और 'संन्निचय' शब्द से क्रमशः दूध-दही आदि थोड़े समय तक और चीनी, गुड़, अन्न आदि अधिक समय तक स्थिर रहने वाले पदार्थों को ग्रहण किया गया है। किसी भी सावध कार्य में प्रवृत्ति करने के तीन स्तर हैं-1. सारंभ 2. समारंभ और 3. आरम्भ। किसी इष्ट वस्तु की प्राप्ति एवं अनष्टि पदार्थ संयोग को नष्ट करने के लिए प्राणातिपात-हिंसा आदि दोषों की मन में कल्पना करना, उनका चिंतन करना सारम्भ कहलाता है। अपने द्वारा चिंतित विचारों को साकार रूप देने के लिए 1. परस्परोपग्रहो जीवानाम्। तत्त्वार्थ सत्र 5, 21 2. सामासायत्ति श्यामा-रजनी तस्यामशनं श्यामाशः तदर्थं तथा पायरासाए, त्ति प्रातरशनं प्रातराशस्तस्मै, कर्म समारम्भाः क्रियन्त इति। -आचारांग वृत्तिः
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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