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________________ 378 श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध बाहर की समझ एक प्रेरणा बन सकती है। इससे आन्तरिक समझ हेतु भूमिका तैयार होती है। धर्म ही शरण है, इसका अर्थ यह नहीं है कि धन, पद-प्रतिष्ठा उपयोगी नहीं हैं। आप धर्म की शरण में आ जाओ, उसके बाद आपके लिए जो भी जरूरी होगा, धर्म वह देगा। यदि आपके विकास के लिए धन आवश्यक होगा तो धन मिलेगा। पद आवश्यक होगा तो पद भी मिलेगा। आप जो चाहते हैं वह नहीं, अपितु आपकी साधना और विकास के लिए जो जरूरी है, वह मिलेगा। इस प्रकार शरण तो धर्म की है, उसके पश्चात् जो भी आपके लिए आवश्यक है, वह मिलेगा। फिर वह धन भी हो सकता है और निर्धनता भी, मान भी हो सकता है और अपमान भी, कुछ भी हो सकता है। जो भी साधना के लिए आवश्यक है, अच्छे संयोग भी हो सकते हैं और कटु संयोग भी। यदि व्यक्ति को सब कुछ एक जैसा ही मिलता रहे, तब वह भटक जाएगा। कभी ठोकर देना भी जरूरी है। धर्म ऐसे ही है जैसे माँ बच्चे का खयाल रखती है। जो भी जरूरी है, बच्चे के लिए वह करती है। लेकिन अगर बच्चा स्वच्छन्दचारी है, तब माँ कुछ करना भी चाहे तो भी नहीं कर सकती। वह तभी कुछ कर सकती है, जब बच्चा स्वच्छन्दता को छोड़ कर माँ की शरण में आ जाए। लेकिन सभी यह नहीं समझ पाते। अतः सभी को धर्म का मर्म नहीं समझ आता, क्योंकि उन्हें साधना नहीं, सुख और सुविधा चाहिए। जब तक सुख और सुविधा मिलती है तो धर्म करते हैं, नहीं तो छोड़ देते हैं। साधक का भाव क्या है? कि मैं अब धर्म की शरण में आ गया हूँ अथवा मैं अब धर्म की शरण में हूँ, तब फिर जो भी उसके जीवन में उसके साथ रहा है वह उसके विकास के लिए है। इस प्रकार साधक जब समझपूर्वक, समाधानपूर्वक स्वीकार करता है, तब समाधि। यदि असमाधान से स्वीकार करेगा, तब उपाधि जागेगी। साधक की अपनी कोई अपेक्षा नहीं है। जैसे कहा है 'नाव कखंति'-जब शरण में आ गया, तब उसकी अपनी कोई अपेक्षा नहीं है। अपेक्षा का अर्थ है, जो भी मिल रहा है, वह ठीक नहीं है। जब आप धर्म की शरण
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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