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अध्यात्मसार: 4
क्योंकि भीतर से मन यही कहता है कि मेरी शरण धर्म की नहीं, बाह्य पदार्थों की है। तब फिर ऊपर से कहने के लिए कहना कि मैं धर्म की शरण में हूँ यह मायाकपट है।
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साधना करते-करते अपने आप आन्तरिक समझ जागती है और उस आन्तरिक समझ से व्यक्ति वास्तव में धर्म की शरण में जाता है। बिना साधना के समझ नहीं आती, बिना समझ के व्यक्ति धर्म की शरण में नहीं जाता और धर्म की शरण में जाए बिना श्रेय या कल्याण की उपलब्धि नहीं होती । जन्म-जन्म के संस्कारवश अज्ञान बना ही रहता है ।.
साधना करते-करते स्वयमेव समाधान आएगा, उस समाधान से समझ जागती है। उसी समझ से व्यक्ति शरण में जाता है । जन्म-जन्म के गहरे संस्कार बिना समझ के नहीं जाते।
समझ भी दो प्रकार से है। एक बाह्य समझ, दूसरी आन्तरिक । बाह्य समझ आने का साधन है-सत्संग, सवाचन इत्यादि । आन्तरिक समझ तो साधना से ही जाती है। दोनों ही जरूरी हैं । बाहर की समझ अकेली परिवर्तन नहीं ला सकती है ।
संसार से छलांग
जब बाह्य शरण 'धन, वैभव, परिवार' छोड़ कर व्यक्ति धर्म की शरण, अरिहंत और सिद्ध और साधु की शरण में आ जाए, यह समझ उसके भीतर से जाग जाए, यह एक मार्ग है, यही एक सुरक्षा है, यही एक मेरे जीवन का आधार है।
जरा मरण वेगेणं बुज्झ, माणाण पाणिणं । धम्मो दीवो पहट्ठाणं, गई शरण मुत्तमं ॥
इस प्रकार शरण में आने पर व्यक्ति साधक बनता है, अर्थात् श्रावक बने या अणुव्रता भी बाह्य समझ है । वास्तविक समझ तो साधना से आएगी। क्योंकि अणुव्रत लेने के बाद भी शरण की भावना न बदली हो, ऊपर से भले ही समझ रहा हो, लेकिन भीतर के मन के संस्कार उसे पुनः बाह्य पदार्थों की ओर खींचकर ले जाते हैं । यह सभी जानते हैं कि धन शरण नहीं देता, लेकिन फिर भी धन का मोह नहीं छूटता।