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________________ अध्यात्मसार : 4 मूलम् : तओ से एगया रोग समुप्पाया समुप्पज्जंति, जेहिं वा सद्धिं संवसइ ते एव एणवं एगया नियया पुव्विं परिवयंति, सोवा ते नियगे पच्छा परिवइज्जा, नालं ते तव ताणाए वा सरणाए वा, मिं तेसिं नालं ताणाए वा सरणाए वा, जाणित्तु दुक्खं पत्तेयं सायं, भोगामेवा अणुसोयंति इहमेगेसिं माणवाणं ॥ 2/4 / 83 मूलार्थ : आसक्तिपूर्वक काम-भोगों के आसेवन से अथवा असाता वेदनीय कर्म के उदय से अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न हो जाते हैं। ऐसा रोगी जिनके साथ रहता है, वे सम्बन्धी उसका तिरस्कार एवं उसकी निन्दा करने लगते हैं और वह भी पीछे से उनकी निन्दा करता है । यदि कभी ऐसी स्थिति न भी आये, तब भी वे सम्बन्धी उसकी रक्षा करने एवं उसे शरण देने में समर्थ नहीं हैं, और न ही उनका रक्षण करने एवं उन्हें शरण देने में वह समर्थ है। यह जानकर कि प्रत्येक प्राणी अपने शुभाशुभ कृत कर्म के अनुसार सुख-दुःख का संवेदन करता है । अतः रोग आदि कष्ट के समय व्यक्ति को अधीर एवं व्याकुल नहीं होना चाहिए । कुछ प्राणी ऐसे भी हैं, जो उस वेदना से बचने के लिए अनवरत भोगों का चिन्तन करते रहते हैं, रात-दिन विषय-वासना में ही संलग्न रहते हैं । हर सूत्र में पुनः पुनः जिस एक ही बात को दुहराया गया है, वह है अशरणभावना । न तो कोई तेरी रक्षा करने में समर्थ है और न तू ही किसी की रक्षा कर सकेगा। फिर भी व्यक्ति सुख और सुरक्षा खोजता रहता है । वह समझता है कि सुरक्षा है बच्चों में, धन में, परिवार में, मकान इत्यादि परिग्रह एवं भोग-उपभोग के साधनों में । उसे लगता है कि घर-परिवार, धन इत्यादि है तो मैं सुरक्षित हूँ और यह सब नहीं होगा तो मेरी रक्षा कौन करेगा। इसीलिए वह धन, मकान, परिग्रह इत्यादि बनाता है । मित्र, सगे-सम्बन्धियों से अच्छे सम्बन्ध बनाता है । यह सब कुछ वह करता है सुख व सुरक्षा के लिए कि किसी भी तरह मेरा सुख बना रहे। लेकिन वह जितने सुरक्षा के
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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