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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध _ 'संतिमरणं' अर्थात् शान्ति और मरण शब्द से मोक्ष एवं संसार का अर्थ ग्रहण किया गया है। संपूर्ण कर्मों का क्षय होने पर ही आत्मा को परम शान्ति मिलती है
और यह स्थिति मोक्ष में ही संभव है, इसलिए शान्ति शब्द का तात्पर्य मोक्ष है। जिस स्थान में प्राणी बार-बार मरण को प्राप्त होते हैं, उसे संसार कहते हैं। अतः मोक्ष एवं संसार दोनों के स्वरूप का सम्यक्तया ज्ञान करके साधु को प्रमाद का परित्याग करना चाहिए।
यदि 'संतिमरणं' इसमें द्वन्द्व समास के स्थान पर तत्पुरुष समास करते हैं, तो इसका अर्थ यह होगा कि मृत्यु के अन्तिम क्षण तक उपशम भाव में प्रवृत्तमान व्यक्ति को जिस महान् फल की प्राप्ति होती है, उसका विचार करते हुए बुद्धिमान पुरुष को प्रमाद से सर्वथा दूर रहना चाहिए।
__ भोगेच्छा जीवन को दुःखमय बना देती है, इस बात को प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है। इसी बात को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम्-एवं पस्स मुणी! महब्भयं, नाइवाइज्ज कंचण, एस वीरे पसंसिए, जे न निविज्जइ आयाणाए, न मे देइ न कुप्पिज्जा, थोवं लद्धं न खिंसए, पडिसेहिओ परिणमिज्जा, एयं मोणं समणुवासिंज्जासि, त्ति बेमि॥86॥ ____ छाया-एवं पश्य मुने! महद्भयं नातिपातयेत् कंचन एष वीरः प्रशंसितः, यो न निविद्यते आदानाय, न मे ददाति न कुप्येत्, स्तोकं लब्ध्वा न निन्देत्, प्रतिषिद्धः परिणमेत्, एतन्मौनं समनुवायसेः, इति ब्रवीमि।
पदार्थ-मुणि-हे मुनि! एयं पस्स-ऐसा समझ कि। महब्भयं-काम-भोग महाभय का कारण हैं अतः। कंचणं-किसी प्राणी को। नाइवाइज्जा-पीड़ा नहीं
1. शमनं शान्तिः-अशेष कर्मापगमोऽतोमोक्ष एव शान्तिरिति, म्रियन्ते प्राणिनः पौनः पुन्येन
यत्र चतुर्गतिके संसारे स मरणः-संसारः शान्तिश्च मरणंच शान्तिमरणं, समाहारद्वन्द्वस्तत् 'संप्रेक्ष्य' पर्यालोच्य प्रमादवतः, संसारनुपरमस्तत्परित्यागाच्च मोक्ष इत्येतद्विचार्येति हृदयं, स वा कुशलः प्रेक्ष्य विषयकषायप्रमादं न विदध्यात! अथवा शान्त्या उपशमेन मरण-मरणावधिं यावत् तिष्ठतो यत्फलं भवति तत्पर्यालोच्य प्रमादं न कुर्यादिति। -आचारांग वृत्तिः