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द्वितीय अध्ययन, उद्देशक 4
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भोगेच्छा का सर्वथा त्याग करना चाहिए। बुद्धिमान वही है, जो तृष्णा एवं आकांक्षा के शल्य को जीवन से निकाल देता है और वही अपने जीवन में वास्तविक सुख एवं आनन्द की अनुभूति करता है। ___परन्तु, जो व्यक्ति अज्ञान एवं मोह से आवृत्त हैं, वे ऐसा कहते हैं कि विषय-भोग एवं भोगों के साधन स्त्री आदि सुख से स्थान हैं। पर, ज्ञानी पुरुषों की दृष्टि में ये साधन दुःख के कारण बनते हैं। कामेच्छा-भोगाकांक्षा मोह कर्म के उदय से है। अतः उसमें आसक्त होने से मोह कर्म का नाश न होकर और उसकी उदीरणा होती है, इससे तृष्णा एवं आकांक्षा में अभिवृद्धि होती है और उससे कर्मबन्धन होता है
और परिणामस्वरूप आत्मा अनेक तरह के दुःखों का संवेदन करता है। अतः भोग के सभी साधन मोह को बढ़ाने वाले हैं, परन्तु काम-विकार या मैथुन मोह को अधिक उत्तेजित करनेवाला है, इससे भोगेच्छा एवं तृष्णा को वेग मिलता है और इसकी पूर्ति के लिए स्त्री का सहयोग अपेक्षित है। इसी कारण सूत्रकार ने महामोह शब्द से इसी भाव को अभिव्यक्त किया है। और यह स्पष्ट कर दिया है कि इससे तृष्णा एवं वासना का उपशमन नहीं होता, अपितु उसका अभ्युदय होता है। अतः विषय-वासना की तृष्णा या भोगेच्छा को मोह, मृत्यु, नरक एवं तिर्यंच गति का कारण कहा है, संसार एवं दुःख की परम्परा को बढ़ाने वाली बताया है। अतः उसके भयावह परिणामों को देख जान कर मुमुक्षु पुरुष को सदा-सर्वदा उससे बचकर रहना चाहिए। और साधना में कभी भी प्रमाद नहीं करना चाहिए, यही भगवान महावीर का आदेश है। .... प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त ‘थीभि' को व्याकरण से अनुसार 'हि' का आदेश होना चाहिए था, परन्तु आर्ष वचन होने के कारण यहां 'हि' का आदेश नहीं हुआ। मैथुन मोह का प्रधान कारण होने के कारण महामोह शब्द से स्त्री अर्थ स्वीकार किया गया है। वृत्तिकार ने भी इसी बात की पुष्टि की है।
1. प्राकृत व्याकरण के नियम से 'भिस्' प्रत्यय को 'भिसोहिहिँ हिं (प्राकृत व्याकरण 8/3/37)
इस सूत्र से हिं हि हि, ये तीन आदेश होते हैं। यथा-वच्छेभि के स्थान में वच्छेहि, वच्छेहि वच्छेहि तीन रूप बनते हैं। परन्तु यहां 'थीभि' के स्थान में हि आदि का प्रयोग नहीं हुआ, इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि आर्ष वाक्य में भिस् का बिना आदेश के भी प्रयोग हो सकता है।