SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 455
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध मूलार्थ - त्रिकरण और त्रियोग से एकत्रित की हुई संपत्ति की अल्प या बहुत मात्रा के उपभोग में वह व्यक्ति आसक्त रहता है । और उपभोग करने के बाद अवशिष्ट विशाल धन राशि को जिसे उसने अपने कष्ट के समय या पुत्र आदि के लिए संग्रह करके रखा था, उसके परिजन आपस में बांट लेते हैं या विभिन्न कर लगाकर तथा अन्य किसी बहाने से राजा ले लेता है, चोर चुरा लेता है या व्यापार में हानि होने से वह नष्ट - विनष्ट हो जाती है या घर में आग लगने से जल जाती है। इस तरह उस धन का नाश हो जाता है और उसका संग्रह कर्त्ता अज्ञानी जीव दूसरों के लिए क्रूर कर्म कर के उपार्जित धन का नाश होने पर विमूढ़ या विक्षिप्त होकर विपरीत भाव को प्राप्त होता है । 366 हिन्दी - विवेचन मनुष्य धन के लिए दूसरों का हिताहित नहीं देखता । वह येन-केन-प्रकारेण धन बटोरने में लगा रहता है और दिन-रात उसका संचय करता रहता है । परन्तु वह धन कभी स्थायी नहीं रहता । कभी परिजन उसे बांट कर खा जाते हैं, तो कभी राजा विभिन्न प्रकार के - कर लगाकर या निर्माण - योजना आदि के बहाने उससे धन लें लेता है। कभी चोर-डाकू उसे लूट ले जाते हैं, तो कभी व्यापार आदि में घाटा पड़ जाने से उसका नाश हो जाता है या कभी घर में आग लग गई तो उसमें जलकर भस्म हो जाता है। इस तरह अनेक प्रकार से उसका ह्रास हो जाता है । परन्तु उससे आत्मा का ज़रा भी हित नहीं होता । इतना अवश्य है कि उसके लिए किए गए क्रूर कार्य से कर्मबन्धन हो जाता है, जिससे आत्मा संसार में परिभ्रमण करती है और इतनी कठिनता एवं पाप कार्य से प्राप्त धन के यों ही चले जाने से मन में अत्यधिक वेदना एवं संकल्प-विकल्प होता है और कभी-कभी मनुष्य विक्षिप्त भी हो जाता है और उस मूढ़ अवस्था में विपरीत आचरण करने लगता है। इस तरह विषय-भोगों के कटु परिणाम को जान कर मुमुक्षु पुरुषों को उसमें आसक्त नहीं बनना चाहिए। तो उसे क्या करना चाहिए? यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है? इसी प्रश्न का उत्तर देते हुए सूत्रकार कहते हैं मूलम् - आसं च छंदं च विगिंच धीरे ! तुमं चेव तं सल्लमाहट्टु, जेण सिया तेण नो सिया, इणमेव नावबुज्झति जे जणा मोहपाउडा,
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy