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________________ 344 श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध व्यक्ति मिल ही जाते हैं। परन्तु उस युग में हिंसा का प्रचार इतना बढ़ गया था कि धर्मस्थान भी वधस्थान से बन रहे थे। यज्ञ की वेदियां खून से रंगी रहती थीं। धर्म के नाम पर हजारों-लाखों पशुओं की गर्दनों पर छुरियां चलती थीं। यही कारण है कि भगवान महावीर ने हिंसक यज्ञों का विरोध किया और लोगों को यह बताया कि संसार का प्रत्येक जीव सुख चाहता है, दुःख सबको अप्रिय लगता है, सभी प्राणी दुःख की एवं मृत्यु की दारुण वेदना से बचना चाहते हैं, जीवन सबको प्रिय है। इसलिए प्रबुद्ध पुरुष को किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करनी चाहिए। दशवैकालिक सूत्र में यही कहा है। ___ कुछ प्रतियों में "सव्वे पाणा पियायाया” यह पाठान्तर भी मिलता है। इसका अर्थ है-सब प्राणियों को अपनी आत्मा प्रिय है। इसका फलितार्थ यह निकलता है कि कोई भी आत्मा अपने पर होने वाले आघात को नहीं चाहता है। अतः साधक को चाहिए कि वह किसी भी प्राणी को पीड़ा न पहुंचाए। - जो व्यक्ति हिंसा, झूठ आदि पापों में आसक्त हैं, उन व्यक्तियों को प्रस्तुत सूत्र में अनोघतर कहा है। ओघ दो प्रकार का होता है-1. द्रव्यओघ और 2. भावओघ। नदी के प्रवाह को द्रव्य ओघ कहते हैं। और अष्टकर्म या संसार को भावओघ कहते हैं और इस संसार रूपी सागर को पार करने वाले व्यक्ति को ओघतर कहते हैं। परन्तु वही व्यक्ति इसे तैर कर पार कर सकता है, जो हिंसा आदि दोषों से मुक्त है। उक्त दोषों में आसक्त एवं प्रवृत्त व्यक्ति इसे पार करने में असमर्थ है। इसलिए सूत्रकार ने उसे अनोघतर, अतीरंगम और अपारंगम कहा है। यहां उक्त शब्द भाव ओघ अर्थात् संसार सागर के अर्थ में प्रयुक्त हुए हैं। तीर और पार शब्द के अर्थ में इतना ही अन्तर है-'तीर' शब्द मोह कर्म के क्षय को व्यक्त करता है और 'पार' शब्द शेष अन्य तीन घातिक कर्मों के क्षय का संसूचक है। अथवा 'तीर' शब्द से चारों घातिक कर्मों का क्षय और 'पार' शब्द से चारों अघातिक कर्मों का क्षय करने का अर्थ भी स्वीकार किया जाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि हिंसा आदि पापों में प्रवृत्ति करने वाले व्यक्ति अष्ट कर्मों का क्षय करके संसार सागर को पार नहीं कर सकते हैं। ___ इससे यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि यह उपदेश किसके लिए है? प्रबुद्ध 1. सव्वे जीवा वि इच्छन्ति।
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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