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द्वितीय अध्ययन, उद्देशक 3
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छाया-स अबुध्यमानः हतोपहतो जातिमरणमनुपरिवर्तमानः जीवितं पृथक् प्रियमिहैकेषां मानवानां क्षेत्र वास्तु ममायमानानाम् आरक्तं, विरक्तं, मणिकुण्डलं सह हिरण्येन स्त्रीः परिगृह्य तत्रैव रक्ताः नात्र तपो वा; दमो वा, नियमो वा दृश्यते सम्पूर्ण बालो जीवितुकामः लालप्यमानः मूढः विपर्यासमुपैति।
पदार्थ-से-वह अहं भाव युक्त। अबुज्झमाणे-कर्म स्वरूप को नहीं जानने वाला प्राणी। हओवहए-विभिन्न व्याधियों से पीड़ित होकर एवं अपयश को प्राप्त करके। जाइमरणं-जन्म-मरण के चक्र में। अणुपरियट्टमाणे-परिभ्रमण करता रहता है। इहं-इस संसार में। खित्तवत्थुममायमाणाणं-खेत, मकान आदि के ममत्व रखने वाला। एगेसिं माणवाणं-किन्हीं मनुष्यों को। पुढो-पृथक्-पृथक् प्रत्येक को। जीवियं-असंयम जीवन। पियं-प्रिय है। आरत्तं-रंगे हुए वस्त्रादि। विरत्तं-विभिन्न रंग वाले वस्त्र आदि। मणि-नीलमादि मणि। कुण्डलं-कानों के कुण्डल। सह हिरण्णेण-स्वर्ण आदि के साथ। यत्थियाओ-स्त्रियों को। परिगिज्झप्राप्त करके। तत्थेव-तथा उक्त पदार्थों में। रत्ता-मूर्छित होते हुए, कहते हैं, कि। इत्थ-यहां पर। तवो-तप। वा-अथवा। दमो-दम-इन्द्रिय और मन का दमन। वा-अथवा। नियमो-अहिंसा आदि। न दिस्सई-फलित नहीं देखे जाते हैं। संपुण्णं-अत्यन्त। बाले-अज्ञानी जीव। जीविउकामे-असंयमित जीवन की कामना वाले। लालप्पमाणे-भोगों के लिए अत्यन्त प्रलाप करने वाले। मूढे-मूर्ख। विप्परियासमुवेइ-विपरीत भाव को प्राप्त होते हैं। ___मूलार्थ-कर्म स्वरूप के बोध से रहित अज्ञानी जीव शारीरिक मानसिक दुःखों एवं अपयश को प्राप्त करता हुआ, जन्म-मरण के चक्र में परिभ्रमण करता रहता है। खेत, मकान आदि में आसक्त मनुष्यों को असंयत जीवन ही प्रिय लगता है और रंगे हुए एवं भिन्न रंग युक्त वस्त्रों, चन्द्रकान्त आदि मणियों, कुण्डल एवं स्वर्ण आदि के साथ स्त्रियों को प्राप्त करके, उनमें आसक्त होने वाले मनुष्य यह कहते हैं कि इस लोक में तपश्चर्या, इन्द्रिय एवं मनोनिग्रह एवं अहिंसा आदि नियमों का कोई फल दिखाई नहीं पड़ता। अत्यन्त अज्ञानी जीव, असंयमित जीवन के इच्छुक विषय-भोगों के लिए अत्यन्त प्रलाप करता हुआ मूढ़ता को प्राप्त होकर विपरीत आचरण करता है।