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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
संतप्त हृदय होता हुआ काल और अकाल में उठने वाला, संयोग का अर्थी, धन का लोभी, गला काटने वाला, बिना विचारे काम करने वाला, धन और स्त्री में आसक्ति रखने वाला, षट्काय में बारम्बार शस्त्र का प्रयोग करने वाला, निम्नलिखित कारणों को मुख्य रखकर हिंसादि कर्म में प्रवृत्त होता है, तथा मेरी आत्म शक्ति बढ़ेगी, मेरी जाति का बल बढ़ेगा, मेरा मित्रबल बढ़ेगा, मेरा परलोक बल बढ़ेगा, मेरा देवबल बढ़ेगा, मेरा राजबल बढ़ेगा, मेरा चोरबल बढ़ेगा, मेरा कृपण बल बढ़ेगा और मेरा श्रमण बल बढ़ेगा। इन पूर्वोक्त विविध प्रकार के कार्यों से प्रेरित हुआ वह प्राणियों के वध में प्रवृत्त होता है एवं जब तक मैं ऐसा नहीं करूंगा, तब तक मेरा आत्मबल नहीं बढ़ेगा, इस प्रकार विचार कर तथा भय के वशीभूत होकर वह पाप कर्म करता है या यह सोचकर वह उक्त पाप कर्मों का आचरण करता है कि इस प्रकार के आचरण से मैं दुःखों से मुक्त हो जाऊंगा या यों कहिए कि विभिन्न आशाओं के वशीभूत होकर वह पाप कर्म करता है।
इस सूत्र में दीक्षा किस प्रकार ली जाती है और दीक्षा धारण करने वालों की योग्यता क्या है, इस संबंध में कहा है। 'विणावि लोभ-जब अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरणीय का उपशम, क्षय या क्षयोपशम होता है तब प्रत्याख्यान की योग्यता, प्रत्याख्यान के भाव आते हैं। यहाँ पर लोभ के अन्तर्गत क्रोध, मान, माया इत्यादि का भी समावेश हो गया है। यहाँ से प्रत्याख्यान की शुरूआत होती है और प्रत्याख्यानावरणीय का क्षय होने पर सर्वविरति के भाव आते हैं। चारों कषायों के जो लक्षण दिये गये हैं, उन्हें खयाल में रखते हुए व्यक्ति की भाव दशा को देखकर हम यह अनुमान लगा सकते हैं कि व्यक्ति किस गुणस्थान एवं दशा में है.। इस प्रकार देशविरति या सर्वविरति के प्रत्याख्यान देने से पहले यह देख लेना आवश्यक है कि उसमें यह योग्यता है या नहीं, क्योंकि कषायों के बलवान रहते आचरण कैसे होगा।
अणगार के लिए विशेषण दिया गया है। ‘नावकंखइ' यहाँ पर कांक्षा का अर्थ है संकल्प करना या तो मैं ऐसा करूंगा या मुझे ऐसा चाहिए ही। एक तो विचार आकर के चला जाता है, लेकिन एक ही विचार पुनः-पुनः आकर के मन की धारणा या मन का संकल्प बन जाए, तब उसे कांक्षा कहते हैं।
अणगार-अर्थात् जिसके चित्त में ऐसी कोई कांक्षा नहीं है। उस स्वाभाविक