________________
अध्यात्मसार: 2
321
धीरे-धीरे दूषित विचार अपने आप चले जायेंगे। क्योंकि साधना के मार्ग पर आने के पश्चात् भीगों की ओर मन का आकृष्ट करना व्यक्ति की साधना को भ्रष्ट करता ही है। साथ ही उसमें माया, डर एवं हीन-भावना का जन्म होगा। फिर वह अधिक उच्छृखल हो जाएगा।
दूसरी बात अनेक मंत्र साधनाएँ हैं, तप अनुष्ठान हैं। जिससे कर्मों की उदीरणा होती है वह भी शक्ति अनुसार करनी चाहिए। वह गुरु को देखना चाहिए कि जितनी शिष्य की शक्ति है, उतनी ही कठिन साधना देनी चाहिए, उससे अधिक नहीं; अन्यथा अरुचि एवं डिगने की संभावना रहती हैं। जैसे किसी का शरीर मानता नहीं और आप अत्यधिक लम्बा उग्र विहार कर रहे हैं तब हो सकता है कि शरीर की असातावश कहीं संयम के प्रति ही अरुचि हो जाए। गुरु को यह देखना चाहिए कि मूल बात है गुप्ति की साधना और संयम । इसीके लिए भगवान की आज्ञा में रहते हुए शरीर एवं स्वास्थ्य के अनुसार जिस प्रकार से सुखपूर्वक हो सके उस प्रकार करना। ___ मंत्र के संबंध में कुछ मंत्र ऐसे हैं जो तीव्र हैं जिसके कारण साधक के भीतर प्रकम्पन अधिक हो सकता है, उस समय योग्यता देखकर मंत्र देना चाहिए।
मूलम्-विणाविलोभं निक्खम्म एस अकम्मे जाणइ पासइ, पडिलेहाए नावकंखइ, एस अणगारेत्ति पवुच्चई, अहो य राओ परितप्पमाणे कालाकालसमुट्ठाई संजोगट्ठी अट्ठालोभी आलुम्पे सहसाक्कारे विपिविचित्ते, इत्थ सत्थे पुणो-पुणो, से आयबले से नाइबले से मित्तबले से पिच्चबले से देवबले से रायबले से चोरबले से अतिहिबले से किविणबले से समणबले, इच्चेएहिं विरूवरूवेहिं कज्जेहिं दंडसमायाणं संपेहाए भया कज्जइ, पावमुक्खुत्तिमन्नमाणे अदुवा आसंसाए॥2/2/76॥ . मूलार्थ-लोभ बिना दीक्षा लेकर, अर्थात् लोभ के सर्वथा दूर हो जाने से दीक्षित हुआ व्यक्ति चारों ही घाति कर्मों का क्षय करके केवलज्ञान से युक्त होकर . सर्व पदार्थों के सामान्य और विशेष धर्मो का बोध प्राप्त करता है। सर्वज्ञ सर्वदर्शी हो जाता है, कषायों के गुण-दोषों का विचार करके लोभादि की इच्छा नहीं करता। इस प्रकार वह अनगार कहलाता है और इसके विपरीत जो अज्ञ है वह दिन-रात