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द्वितीय अध्ययन, उद्देशक 1
अणभिक्कतं वयं-अभी धर्म करने योग्य अवस्था अवशेष है, ऐसा। संपेहाए - विचार कर, आत्म-चिन्तन में संलग्न होना चाहिए ।
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मूलार्थ - आत्म-साधना का समय अभी शेष है, ऐसा सोच-विचार कर साधक को आत्म - अन्वेषण में संलग्न होना चाहिए ।
हिन्दी - विवेचन
प्रस्तुत सूत्र में साधक को सावधान करते हुए कहा गया है कि हे साधक ! तू संसार की अवस्था को जान-समझकर तथा सम्यक्तया अवलोकन करके आत्म चिन्तन में संलग्न हो । क्योंकि अभी तुम्हारे शरीर पर वार्धिक्य एवं रोगों ने आक्रमण नहीं किया है, तुम्हारा शरीर स्वस्थ है, इन्द्रियां भी सशक्त हैं, ऐसी स्थिति में समय को व्यर्थ में नष्ट मत कर, क्योंकि इस अवस्था के बीत जाने पर इन्द्रियों की शक्ति कमज़ोर हो जाएगी, अनेक रोग तेरे शरीर पर आक्रमण करके उसे शक्तिहीन बना देंगे। फिर तू चाहते हुए भी कुछ नहीं कर सकेगा ।
इससे यह स्पष्ट होता है कि साधना के लिए स्वस्थ शरीर एवं सशक्त इन्द्रियों का होना आवश्यक है। यह सब सापेक्ष साधन हैं। निश्चय दृष्टि से निर्वाण -प्राप्ति के कारण रूपं क्षायिक भाव की प्राप्ति के लिए क्षयोपशम भाव सहायक है, न कि औदयिक भाव और शरीर आदि की नीरोगता, साता वेदनीय कर्म के उदय से है, फिर यहां जो यौवन वय को साधना में लगाने को कहा है, उसका कारण यह है कि अभी शरीरं क्षायिक भाव प्राप्ति का साधन है और साधना की सिद्धि के लिए साधनों का . स्वस्थ एवं सशक्त होना ज़रूरी है । इसी अपेक्षा से एक विचारक ने सत्य ही कहा है कि 'स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन और स्वस्थ आत्मा रह सकती है' क्योंकि रोग के कारण, मन सदा चिन्ताग्रस्त रहेगा और मन की अस्वस्थता के कारण आत्मचिन्तन ठीक तरह हो नहीं सकता; इसलिए साधना काल में स्वस्थ शरीर भी अपेक्षित है । इसलिए प्राप्त समय को सफल बनाने के लिए सूत्रकार कहते हैं
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मूलम् -खणं जाणाहि पंडि॥71॥
छाया -क्षणं जानीहि पंडित !