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________________ श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध फल प्राप्त हो रहे हैं। रूस में भी ऐसे प्रयोग किए जा चुके हैं। वैज्ञानिक और भी प्रयोग करने में संलग्न हैं । जब ये संसार के पेड़-पौधे अनेक प्रकार के फलों एवं विभिन्न रंगों के पुष्पों से पुष्पित एवं फलित हो सकते हैं, तो फिर वेदनीय कर्म के वृक्ष से सुख-दुःख रूप दो प्रकार के फलों का प्राप्त होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। 288 इस तरह साधक सुख और दुःख रूप उभय फलों को वेदनीय कर्मजन्य जानकर समभाव पूर्वक संवेदन करे । न सुख में आसक्त बने और न दुःख में हाहाकार करे। परन्तु अपने किए हुए कर्म के फल समझकर शान्ति के साथ उनका संवेदन करे । प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त ' जाणित्तु' और 'पत्तेयं' शब्द बड़े महत्त्वपूर्ण हैं । 'जाणित्तु' पद से यह अभिव्यक्त किया है कि प्रत्येक वस्तु को पहले जानना चाहिए। क्योंकि ज्ञान के बिना कोई क्रिया नहीं हो सकती । अतः दुख में समभाव की साधना भी ज्ञान युक्त व्यक्ति ही कर सकता है । और 'पत्तेयं' से यह बताया है कि दुनिया में सर्वत्र व्यापक एक आत्मा नहीं, अपितु अनेक आत्माएं हैं और उन सब आत्माओं का अपना स्वतंत्र अस्तित्व रहा हुआ है। 1 इसके अतिरिक्त ‘दुक्खं' और 'सायं' शब्दों से यह स्पष्ट कर दिया है कि प्रत्येक संसारी आत्मा को प्राप्त सुख-दुःख उसके कृतकर्म के फल हैं, न कि किसी शक्ति द्वारा दिए गए वरदान या अभिशाप रूप प्राप्त हैं । व्यक्ति पापाचरण से अशुभ कर्मों का बन्ध कर के दुःखों को प्राप्त करता है और सत्कार्य में प्रवृत्त होकर शुभ कर्म बन्ध से सुख साधनों को उपलब्ध करता है । अतः साधक को प्राप्त दुःख एवं वेदना में घबराना नहीं चाहिए, अपितु समभाव पूर्वक उसे सहन करना चाहिए। और वेदना में संलग्न मन की, विचार की, चिन्तन की धारा को आत्मचिन्तन की ओर मोड़ देना चाहिए । इसी बात को बताते हुए सूत्रकार कहते हैं मूलम् - अणभिक्कतं च खलु वयं संपेहा ॥ 70॥ छाया - अनभिक्रान्तं च खलु वयः संप्रेक्ष्य । पदार्थ-च और खलु शब्द क्रमशः अधिक और पुनरर्थ में प्रयुक्त हु हैं।
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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