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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
प्रौढ़ अवस्था में आकर शक्ति का विकासस्रोत रुक जाता है। धीरे-धीरे व्यक्ति इन्द्रियबल से निर्बल होने लगता है। यहीं से वृद्धावस्था का प्रारंभ हो जाता है। यह जीवन का जीर्ण-शीर्ण रूप है, इस काल में शक्ति का, स्वास्थ्य का, इन्द्रियों का, शरीर का, अर्थात् यों कहिए जीवन के सभी बाह्य अवयवों का ह्रास होने लगता है। कान, आंख, नाक, जिह्वा और त्वचा की शक्ति कमजोर हो जाती है। इन इन्द्रियों को अपने-अपने विषयों को ग्रहण करने में भी कठिनाई होने लगती है। बूढ़े का जीवन-निर्वाह भी कठिन एवं बोझिल हो जाता है। वह अपने जीवन से तंग होकर दुःख एवं संक्लेश का अनुभव करने लगता है। वृद्धावस्था का वर्णन करते हुए भर्तृहरि ने बहुत ही सुंदर कहा है
गात्रं संकुचितं, गतिविगलिता दन्ताश्च नाशंगताः, दृष्टिभ्रंश्यति रूपमेव हसते वक्त्रं च लालायते। वाक्यं नैवं करोति बान्धवजनः पत्नी न शुश्रूषते।
धिक्कष्टं जरयाभिभूतपुरुषं पुत्रोप्यवज्ञायते॥ अर्थात्-वृद्धत्व के आते ही शरीर में झुर्रिया पड़ जाती हैं, पैर लड़खड़ाने लगते हैं, दांत गिर जाते हैं, दृष्टि कमजोर पड़ जाती है या नष्ट हो जाती है, रूप-सौन्दर्य का स्थान कुरूपता ले लेती है, मुख से लार टपकने लगती है, स्वजन-स्नेही उसके आदेश का पालन नहीं करते, पत्नी सेवा-शुश्रूषा से जी चुराती है, पुत्र भी उसकी अवज्ञा करता है। कवि कहता है कि ओह! इस वृद्धत्व के कष्ट का क्या पार है? धिक्कार है, इस जरा ग्रस्त जीर्ण-शीर्ण शरीर को। ____ प्रस्तुत सूत्र में सूत्रकार ने वृद्धावस्था के इसी चित्र को उपस्थित किया है। इस अवस्था में शारीरिक शक्ति एवं इन्द्रिय बल इतना क्षीण हो जाता है कि व्यक्ति अपने एवं परिजनों के लिए बोझ रूप बन जाता है। इस अवस्था को प्राप्त व्यक्ति प्रायः मूढ़भाव को प्राप्त हो जाते हैं अथवा इसके प्रहारों से अत्यधिक प्रताड़ित होने के कारण उनमें कर्तव्य-अकर्तव्य का भी विवेक नहीं रह जाता है। - यहां एक प्रश्न हो सकता है कि आत्मा ज्ञान स्वरूप है, फिर इसमें वृद्धावस्था के आने पर श्रोत्र आदि इन्द्रियों का ज्ञान मन्द क्यों हो जाता है? क्या ज्ञानं अवस्था के