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________________ प्रथम अध्ययन, उद्देशक 7 249 अपने आपको संयमी कहते हुए भी विषय-वासना एवं आरंभ में आसक्त होकर आत्मा के साथ अष्टकर्मों का संग करते हैं। हिन्दी-विवेचन पीछे के उद्देशकों में इस बात को स्पष्ट कर दिया है कि पृथ्वी आदि जीवों की हिंसा कर्मबन्ध का कारण है। इस सूत्र में यह स्पष्ट बताया गया है कि एक काय की हिंसा करने वाला छह काय के जीवों की हिंसा करता है। जैसे जो व्यक्ति पृथ्वी की हिंसा करता है, उससे पृथ्वीकायिक जीवों के आश्रय में रहे हुए अन्य अप्कायिक तेजस्कायिक, वनस्पतिकायिक एवं त्रस जीवों की हिंसा भी होती है। इसी प्रकार अन्य जीवों की हिंसा के संबन्ध में भी जानना चाहिए। इस प्रकार छहकाय का आरम्भ-समारम्भ करने में कर्मों का बन्ध होता है और परिणामस्वरूप संसार-परिभ्रमण एवं दुःख-परम्परा का प्रवाह बढ़ता है। कुछ व्यक्ति अपने आपको साधु कहते हुए भी हिंसा में प्रवृत्त होते हैं। इसका कारण यह है कि वे शब्दों से अपने आप को साधु कहते हैं, परन्तु आचार की दृष्टि से वे अभी साधुत्व से बहुत दूर हैं, क्योंकि वे ज्ञानाचार, दशर्नाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार में रमण नहीं करते हैं और जब तक आचार को, सम्यक् चारित्र को क्रियात्मक रूप से स्वीकार नहीं करते, तब तक उनकी प्रवृत्ति साधुत्व में नहीं होती। इसी कारण वे आचार-रहित व्यक्ति विषय-वासना में आसक्त होकर विभिन्न प्रकार से अनेक जीवों की हिंसा करते हैं। इसलिए उनका सावध अनुष्ठान कर्मबन्ध का कारण है और परिणामस्वरूप वे संसार में परिभ्रमण करते हैं। इसलिए मुमुक्षु को षट्कायिक जीवों के आरम्भ से निवृत्त होना चाहिए। कौन व्यक्ति जीयों की हिंसा से निवृत्त हो सकता है, इस बात को बताते हुए सूत्रकार कहते हैं . मूलम-से वसमं सव्वसमण्णागयपण्णाणेणं अप्पाणेणं अकरणिज्जं पावं कम्म णो अण्णेसिं, तं परिण्णाय मेहावी व सयं छज्जीवनिकायसत्थं समारंभेज्जा, णेवऽण्णेहिं छज्जीवनिकायसत्थं समारंभावेज्जा, णेवण्णे छज्जीवनिकायसत्थं समारंभंते समणुजाणेज्जा, . जस्सेते छज्जीवनिकायसत्थं समारंभा परिण्णाया भवंति से हु मुणी परिण्णायकम्मे, त्ति बेमि॥62॥
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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